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बिखेरे हैं जिंदगी ने मोती…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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दो हफ्ते पहले माँ के घर से लौट रहे थे। सड़क के इस-उस पार खेतों में खासी हरियाली छाई हुई थी, होगी ही इस बार जैसे आसमान ने धरती वालों के लिए बारिश का खजाना ही खोल दिया था। दो-एक जगह खेतों में रूई-सी बिखरी दिखी… अरे काँस…! भादौ ही तो शुरू हुआ है, अभी… काँस का आना मतलब तो बारिश का समापन है। राजेश ने तुलसी को याद किया ‘फूले काँस शरद ऋतु आई’। लेकिन अभी तो वर्षा का ही समय है? अरे तुलसी का वक्त ६०० साल पहले ही गुज़र गया, इस बीच दुनिया भर की नदियों में बहुत पानी बह चुका है। बहुत वक्त बदल गया है, वक्त बदलने के साथ ही सभी कुछ बदलेगा, ऋतु-चक्र भी…। तो अभी बारिश का अवसान नहीं हुआ और काँस खिल उठे, शुरुआती दौर में गर्म दिनों के बाद रातें बहुत मीठी-मीठी हो गई थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से दिन-रात ‘अंदर-बाहर’ हर कहीं गर्म था और चुभता हुआ भी।

तेज़ भागती घड़ी की सुइयाँ थी, उन सुइयों के साथ दौड़ते-भागते हम थे। न भीतर मीठापन था न बाहर, काम का दबाब-तनाव, अपेक्षाओं की किच-किच और उस पर मौसम का तीखा रुख। बस सुबह होती है शाम होती है जिंदगी तमाम होती है वाला हाल। हर सुबह कामों की फेहरिस्त ज़हन में अपडेट होती रहती है और हर शाम ये सोचकर निराशा होती है कि बहुत सारे काम कर ही नहीं पाए हैं। सुबह-शाम का यही हिसाब… फिर घर में कितनी ही हड़बड़ी मचाओ समय पर निकल ही नहीं सकते हैं और दफ्तर में भी कितनी ही जल्दी-जल्दी काम करो वक्त पर नहीं निकल पाते हैं… बस चल रहा है यही सब।

उस सुबह भी इसी तरह हड़बड़ी में निकले थे कि सड़क पर अप्रत्याशित रूप से बालम ककड़ी लिए हुए ठेले वाला खड़ा था। अब जिसने बालम ककड़ी को स्वाद चखा हो, वो इसका पागलपन समझ सकता है। एक बारगी मन हुआ कि रूककर खरीद लें, लेकिन फिर ये सोचकर गाड़ी आगे बढ़ा दी कि दिन भर धूप में पड़ी रहेगी और रात तक खराब हो सकती है, देखा जाएगा शाम को…। फिर हर दीगर चीजों की तरह ये विचार भी दिमाग से उतर गया। आजकल कुछ-कुछ दिनों के अंतराल से लगता है कि खुद का हाथ छूटता जा रहा है, वक्त के तेज़ बहाव में धीरे-धीरे खुद की ऊँगली हथेली से फिसल रही है और ये अहसास लगातार गहराता जा रहा है। रास्ते भर ये विचार कोंचता रहा। इसी तरह की नकारात्मकता ज़हन पर लगातार दस्तक दे रही थी… कि वहीं बालम ककड़ी का ठेला नज़र आया। कीमत पूछी २० रुपए की एक और दूसरी वाली १० रुपए की एक… पूछा ये अंतर क्यों? तो जवाब मिला कि आकार का फर्क है एक बड़ी, एक छोटी है। फिर पूछा कि ये है कहाँ की, जवाब मिला झाबुआ की…। मनस्थिति ऐसी नहीं थी कि बारगेन किया जा सके। ठीक है २० वाली दो दे दो। वो काट-काट कर रख रहा था, तभी एक और ग्राहक भाव पूछता हुआ आ पहुँचा। उसने बारगेन किया १५ की दे दो, वो मान गया। यहाँ भी बत्ती जली हाथ में पचास रुपए का नोट था, बिना हिसाब-किताब किए कह दिया ५० में तीन लूँगी। (घर आकर बताया तो खूब खिल्ली उड़ाई गई, खैर गणित में हाथ तंग है तो खुद भी हँस कर बात टाल दी।) उसने तीन ककड़ी दी, हम चल पड़े। गाड़ी में उसे व्यवस्थित किया, फोन को बैग से निकाल ही रहे थे कि वो ककड़ी वाला एक और ककड़ी लेकर आया, एक और ले लीजिए। फिर उसने कहा अगली बार मैं आपको वहाँ की (उसे जगह का नाम याद नहीं आ रहा था)… – हमने बीच में ही टोक दिया – सैलाना की- हाँ, सैलाना की खिलाऊँगा। आप शुक्रवार को पूछतीं जाना…।

घर पहुँची तो शकल देखकर पहला सवाल था- क्या बात है? आज कुछ खास…?

सोचा…. क्या खास?

नहीं कुछ भी खास नहीं…- फिर याद आया। – हाँ आज तो ककड़ी वाले ने खुश कर दिया।

सोचा जिस तरह से इंसान की बेईमानी, धोखा, छल, झूठ और बुराई हमें व्यथित करती है, उसी तरह इंसान की अच्छाई हमें ऊर्जा से भर देती है। हमें सब कुछ अच्छा-अच्छा-सा लगने लगता है। सारी निराशा धुल जाती है। सोचें तो लगता है कि सारी बुराईयों के बावजूद हमें यदि कुछ छूता है, द्रवित करता है तो वो है अच्छाई। बुरे-से-बुरे इंसान को भी एक बस यही चीज़ नम कर सकती है… इंसान की अच्छाई।

पाया कि जिंदगी हर वक्त हमें संकेत देती है, कोई-न-कोई सबक अपने हर व्यवहार में देती है, बस कभी-कभी कुछ लगता है, बाकी यूँ ही बह जाता है, तेज बारिश की तरह…।

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