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गरीबों का परमानंद-होली

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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पूरा फागुन प्रकृति वसंत मनाती है। ठूंठ पर कोंपले निकल आती है, कोयल कूकने लगती है, नीम से मादक सुगंध फैलती है, पलाश के सिरे दहकने लगते हैं और आम बौराया-बौराया-सा रहता है। दिन भी वसंत के खुमार में अलसाए-अलसाए हुआ करते हैं, ऐसे ही दिनों की तो अभिव्यक्ति है होली। होली से जुड़ी पौराणिक कथाएं जो हैं, सो हैं, लेकिन होली में रंग कहां से आ जुड़ा, इस पर शोध की जरूरत है। यूं हमारी लोक-संस्कृति ने राधा-कृष्ण और आगे चलकर राम भी आते हैं। आगे इसलिए कि ऐतिहासिक तौर पर राम पहले और कृष्ण बाद में थे, लेकिन जब कभी लोक-संस्कृति में ये किरदार आते हैं तो कृष्ण पहले होते हैं, क्योंकि कृष्ण की ‘मानवीयता’ से हम खुद को संबंद्ध पाते हैं, राम की ‘मर्यादा’ ने उन्हें सिर्फ पूजनीय बनाया है। राम आदर्श की रचना करते हैं, कृष्ण जीवन को ‘आनंद’ का पर्याय बना देते हैं। इसलिए कृष्ण अवतार होकर भी सखा है और राम अवतार होकर प्रभु…। तो जाहिर है कि सखा के साथ होली खेली जा सकती है। शायद इसीलिए कृष्ण को राज नहीं कर पाने का श्राप मिला हो… और इसीलिए कृष्ण हमें अपने से लगते हों…। जो भी हो कृष्ण भारतीय परंपरा के सबसे ‘सामाजिक’ पात्र हैं। बिल्कुल होली की तरह के…।
होली में रंग कहां से और कैसे आए? ये सवाल अनुत्तरित ही है। कितनी मजेदार बात है ये क्यों हैं? इसके जवाब तो होंगे, लेकिन कब और कैसे आए, इसके नहीं। त्योहार में रंग का समावेश किसी ‘खब्ती खोपड़ी’ की ही उपज होगी। कितनी अजीब बात है कि हर त्योहार किसी-न-किसी कथा से जुड़ता है, लेकिन होली पर रंग का तर्क, विचार, परंपरा किसी भी परंपरा से नहीं जुड़ता। इसकी महज एक ही परंपरा है, वो है पूरी आजादी, मस्ती, आनंद…।
आज जब प्लंबर ने ये कहते हुए बड़ी बेमुरव्वती से फोन काट दिया कि हम गरीबों का तो सबसे बडा त्योहार ही है होली तो सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि होली गरीबों का ही सबसे बड़ा त्योहार क्यों हैं? तर्क बहुत सीधा-सा है। होली के लिए किसी भी तरह की भौतिकता की जरूरत नहीं है, उसके बाद भी इसका आनंद किसी और त्योहार की तुलना में बहुत-बहुत ज्यादा है। दीपावली का सारा दारोमदार ही बाजार पर है, लेकिन होली को किसी बाजार की दरकार नहीं है… ५ रुपए का रंग ही दिन भर उल्लास, उत्साह औऱ मस्ती के लिए काफी होता है। हमारी व्यवस्था में होली अर्थव्यवस्था से ज्यादा मनोविज्ञान और सामाजिकता से जुड़ता है, ये विरेचन है… मन का। ये उल्लास है ठेठ का… फूलों के रंगों से खेले जाने वाले इस पर्व में प्रकृति भी उन्मुक्तता से शामिल होती है, देखें आसपास महकते-दहकते प्रकृति के रंगों को और साथ ही ‘आम आदमी’ के अपूर्व उत्साह को…। यही है होली का सार… और होना भी यही चाहिए। तो… सबको होली की खूब सारी शुभकामना…

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