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रिश्तों का प्रोटोकॉल…:-)

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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जानने का क्रम तो हर वक्त चलता ही रहता है, लेकिन हर बार का जानना समझ तक कब पहुँचेगा ये कहा नहीं जा सकता है। अब अंतर्राष्ट्रीय संबंध पढ़ने के दौरान जाना था कि चाहे दो देश युद्धरत हों, लेकिन उनके राजनयिक संबंध फिर भी बने रहते हैं। मतलब दो देशों के बीच युद्ध चल रहा है, लेकिन राजदूत दूसरे देश में उसी तरह कार्य करते रहते हैं, जैसे शांतिकाल में काम करते हैं।
डिप्लोमेसी के प्रोटोकॉल के तहत राजदूतों की वापसी संबंध खत्म होने का संकेत है। मतलब ये कदम बहुत गंभीर स्थितियों में ही उठाया जाता है। युद्ध से भी ज्यादा गंभीर है राजदूतों को वापस बुला लिया जाना… एक तथ्य था, जिसे जस-का-तस ग्रहण कर लिया।

ननिहाल चूँकि शहर से बाहर था, इसलिए ताईजी का मायका ही हमारा ननिहाल हुआ करता था। उस पर वहाँ थे हमउम्र बच्चे… अब ये अलग बात है कि ताईजी को लगता था कि मुझे छोड़कर दुनिया में हर बच्चा बदमाश है और मुझे परेशान करना हर बच्चे का एक-सूत्री कार्यक्रम ही है। इसलिए वे अपने भतीजों-भतीजियों से-जो कि मेरे हमउम्र हुआ करते थे और इसलिए उनके साथ खेलने का लालच भी हुआ करता था-दूर ही रखती थीं।
खैर थोड़े-थोड़े बड़े हुए तो सारों में ही जैसे समझ आ गई और लड़ाई-झगड़े कम हो गए। ताईजी को भी यकीन हो गया कि सारे बच्चों ने अपने कार्यक्रम में तब्दीली कर ली है, सो अब गाहे-ब-गाहे हम ‘मामा’ के घर में ही रहने लगे। तीन मंजिला मकान के हर फ्लौर पर एक परिवार रहता था… तीन भाईयों का परिवार जो था… आने-जाने का रास्ता एक ही था, इसलिए वैसा ‘सेपरेशन’ नहीं था, जैसा कि फ्लैट्स में हुआ करता था। फिर इतने सारे बर्तन थे तो हर दिन खड़कने की आवाजें आया करती थी। ‘छोटे’ बर्तनों के खड़कने से ज्यादा आवाज़ तो ‘बड़े’ बर्तनों के खड़कने की आया करती थी, लेकिन छोटों की दुनिया पर उसका कोई असर नहीं हुआ करता था।
खिचड़ी सारे बच्चों की पसंदीदा डिश हुआ करती थी। और ये तय था कि जिसके भी घर में खिचड़ी बननी हैं, सारे बच्चे उसी घर में धावा बोलेंगे। और ऐसा मंजर बहुत बार पेश आया कि किसी के घर में खिचड़ी खाने के लिए बच्चे जमा हुए हैं, बच्चे बहुत प्रेम औऱ चाव से खिचड़ी खा रहे हैं, लेकिन बच्चों की माँओं के बीच जमकर तकरार हो रही है। मतलब बच्चे एक-दूसरे को छेड़ भी रहे हैं, थाली में से मूँगफली के दाने या फिर मीठे अचार की फाँके चुराकर खा रहे हैं और मीठी-मीठी लड़ाईयाँ भी कर रहे हैं, लेकिन बड़ों की तकरार के प्रति बिल्कुल उदासीन है।

बचपन का ये किस्सा और फिर यूनिवर्सिटी में पढ़ा सबक समझ के किस सूत्र तक ले जा रहे हैं? डिप्लोमेसी ये कहती है कि संवाद हर सूरत में कायम रहना चाहिए… तमाम युद्धों और खराब हालात के बावजूद… क्योंकि बात से ही बात निकलती है। ये सूत्र व्यक्तिगत रिश्तों से लेकर देशों के बीच के रिश्तों पर भी समान रूप से लागू होती है। कह लें, निकाल लें मन की भड़ास… फिर बढ़े आगे… यदि रिश्ता बनाए रखना चाहते हैं तो… चुप रहने से गड़बड़ाते हैं रिश्ते, घुट जाती हैं भावनाएं और बंद हो जाते हैं, एक-दूसरे की ओर जाने वाले रास्ते… फिर…!

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