Menu
blogid : 5760 postid : 261

प्रेम का ‘प्रिल्यूड’ है वसंत

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
  • 93 Posts
  • 692 Comments

सर्दी की विदाई और गर्मी के आगमन का संदेश है वसंत… जीवन का, प्रेम का, सृजन का परिवेश रचता हुआ चुपके से आता है मौसम के आँगन में… सूखे पत्तों का झरना और नई कोंपलें आने का वक्त, पलाश, सरसों, महुआ और नीम के फूलने का मौसम, आम के बौराने और कोयल के पंचम सुर में गाने की ऋतु… भंवरों के हिंडोल
गाने … धूप के पीले, सुबह के सिंदूरी, आसमान के रंग-बिरंगी होने और शामों के सुरमई होने के दिन… मन के मयूर हो जाने और प्रेम में डूब जाने का मौका है वसंत। जिस तरह प्रेम विस्तार है भावनाओं का, उसी तरह वसंत विस्तार है जीवन के आनंद का। यौवन की ऋतु है ये… जीवन के आनंद का, प्रकृति के उत्सव का प्रतीक है वसंत…, कल्पना है, सौंदर्य, संगीत, सृजन… जो कुछ भी कोमल है, सुंदर है, मनभावन है वो सब कुछ है वसंत… ठीक वैसे, जैसे प्रेम। सिमटे तो दिले आशिक और फैले तो जमाना है की तर्ज पर एक साथ विराट और सूक्ष्म है वसंत और प्रेम भी। हमारी परंपरा में वसंत कामदेव की ऋतु मानी जाती है। कामदेव पौराणिक कथा में प्रेम के देवता है, जिन्होंने कैलाश पर तपस्यारत महादेव की तपस्या को भंग करने का दुस्साहस किया था। कहा जाता है कि जिस वक्त शिव ने अपने तीर से कामदेव के प्राण लिए थे, उस वक्त आम बौराया हुआ था। कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर शिव ने जीवन तो दिया, लेकिन शरीर नहीं दिया, तब से कामदेव अनंग कहलाए। प्रेम भी अनंग है और वसंत भी… शीत का वजूद है, सर्द और रूखी हवाएं, ठिठुरन… गर्मी का लक्षण है जलाती धूप, तीखी चुहचुहाती गर्मी… और बारिश…! उसे तो किसी शिनाख्त की जरूरत ही कहां है? कभी बूंदों में तो कभी झड़ी की शक्ल में, आसमान में चमकती बिजली और गरजते बादलों से अपने वजूद की घोषणा करती है। बस शरद और वसंत ही हैं जो अनंग हैं… भावना की तरह। मन में जगह पाए हुए प्रेम की तरह, जैसा सृष्टि का हर कोना घेरे वसंत है। इसे खिले फूलों, भंवरों की गुनगुन, कोयल की कूक और बयार से पहचानिए, आम पर आए बौर, पलाश, महुआ और नीम के फूलने से चिह्ने… वो हवा है, अहसास है, भावना है… प्रेम की तरह, संत वैलेंटाइन की कामना की तरह…। शीत का विस्तार और ग्रीष्म का मंगलाचार है वसंत, पतझड़ की ऊंगली थामे जब ऋतुओं के आंगन में कदम रखता है ऋतुराज… तो जैसे दिन शहनाई की फूंक-सा हल्का-फुल्का हो जाता है और रात ऊंगलियों के सितार के तारों को स्पर्श करने से उत्पन्ना होती ध्वनि की तरह सुरीली होती चली जाती है …। खुल आता है मन और जीवन… बह जाने को, डूब जाने को आतुर…। पीले-सूखे पत्तों की तरह झड़ चुका होता है शीत का विषाद और नई कोंपलों-सा फूट आता है ग्रीष्म का आल्हाद, हिंडोल के बजते ही मन चंचल हो उठता है… बस इसी विषाद और आल्हाद की संधि-रेखा पर ही कहीं खड़ा होता है प्रेम। विरह की चूनर को थामे हुए, मिलन की उम्मीद लगाए। यूं ही तो नहीं वसंत को मधुमास या मधुऋतु कहा जाता है। वसंत प्रेम की ऋतु है, सृजन की ऋतु है। हर तरफ रंग बिखरे होते हैं जीवन के, पीले, नारंगी, लाल, सफेद, गुलाबी, हरे और न जाने कौन-कौन से रंग से धरती श्रृंगारित होती है। हवाएं भरती है सांसों में आम के बौर, महुआ के फूल और निंबोली की मादक सुंगध…।
हर तरफ उत्सव का आलम हो तो फिर कैसे मन इस सबसे जुदा रह सकता है? प्रकृति उदात्त होती है इन दिनों और उन्मुक्त भी, आह्वान करती है स्वतंत्रता का… सारे बंधनों को खोल देने का। तभी तो वसंत की आमद, मन में, उपवन में और फिर जीवन में उमंग, उत्साह और मादकता का संचार करता है। वसंत मुक्ति का गान है… बयार की तरह सारे बंध खोल देने और बह जाने का आह्वान करता है, ठीक वैसे ही जैसे प्रेम… प्रेम में होना वैसा है जैसे सारी दुनिया को जीत लिया गया हो… वसंत का मन भी वैसा ही होता है, जैसा प्रेमी का मन…। इतना उन्मुक्त, सृजनशील और आल्हाद से भरा है वसंत कि इसमें प्रेम, सृजन और जीवन के हर रंग उतरते हैं, उभरते हैं। जिस तरह प्रेम जीवन में सारे रसों का सार है, उसी तरह वसंत हमारे जीवन में रसवर्षा ही है। पतझड़-वसंत, आशा-निराशा, विध्वंस-सृजन… प्रेम-विरह, रूठना-मनाना, खुशी-दुख… बस यही जीवन है और इतना ही प्रेम भी। शीत और ग्रीष्म का संधिकाल है वसंत… प्रेम और आल्हाद की पूर्वपीठिका। हवाओं की नशीली गंध, बौराया आम और महुआ के फूलों की महक से होश खोते मन की ऋतु है वसंत।
वसंत उत्सव, आल्हाद और उल्लास की ऋतु है, चंचल है, प्रेम में डूबी हुई नायिका की तरह… घड़ी में आशा और घड़ी में निराशा के हिंडोले पर सवार… वासंती बयार में सरसराती पत्तियों की आहट से उमगती और झूमते फूलों के स्पर्श से सिहरती है नायिका। एक ही साथ प्रेम और आगे बढ़कर जीवन के रस से रिश्ता जोड़ती ये ऋतु नवसंवत् की पूर्वपीठिका है। वसंत जीवन की पूर्णता है, जगत के कार्य-व्यापार से आगे मन के विस्तार का उत्सव है वसंत… तभी तो मन से मन को जोड़ता है।ये कोई इत्तफाक नहीं है कि वसंत के विस्तार में ही फागुन भी सिमटता है, होली भी और प्रेम का पर्व वैलेंटाइन्स-डे भी। वसंत अपने पीले रंग की तरह शुद्ध है, प्रेम की भावना, सृजन की कामना और आनंद के आग्रह के साथ रंगता है प्रकृति को और रंगरेज प्रकृति रंगती है हमारे मनों को।
हमारी पौराणिक मान्यता है कि चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की एकम(प्रतिपदा) को सृष्टि का सृजन किया गया था। तो वसंत इस रंग-बिरंगी दुनिया के सृजन की पूर्वपीठिका है, वो सपना है, वो कल्पना, योजना, विचार है, जिसके आधार पर इस विराट सृष्टि का निर्माण किया गया है। हर रंग से इस सृष्टि को सजाया गया है, जिसमें सबसे गाढ़ा और सबसे आधारभूत रंग है प्रेम…। जो जीवन का, सृजन का और आनंद का रंग है। प्रेम वो भाव है, जिसमें सारी सृष्टि समाहित होती है। सारे रंग, रस और सौंदर्य प्रेम का उसी तरह हिस्सा हुआ करता है, जिस तरह वसंत में प्रकृति अपने खुलते-खिलते रंग और सौंदर्य में अवतरित हुआ करती है। प्रेम और वसंत दोनों ही हमें जीवन के असली रूप के दर्शन करवाते हैं। आशा-निराशा और मिलन-विरह, सुख-दुख के मेल से ही जीवन पूर्ण होता है। एक के बिना दूसरा आधा हुआ करता है, उसी तरह वसंत हमें प्रेम की सीख देता है और जीवन को पूर्ण बनाता है। न होकर होने की प्रतीति है प्रेम… इसीलिए वसंत का साथी है। उसका सहचर है, उसका हमसफर है, प्रतिध्वनि और प्रतिबिंब है। साथ-साथ चलते हैं प्रेम और वसंत, जीवन के स्याह-सफेद में रंगों का इंद्रधनुष ताने हुए आ गया है वसंत…।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply