Menu
blogid : 5760 postid : 259

हवा का सहारा…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
  • 93 Posts
  • 692 Comments

जानता हूँ कि माँ चिंता करेगी, लेकिन ऐसी उद्विग्न मनस्थिति में कैसे माँ का सामना करूँ…. फिर भी आखिर घर तो जाना ही था। घर पहुँचा था, माँ ने एक उत्सुक नजर चेहरे पर डाली थी, मैंने नजरें झुका ली थी। जाने कैसे माँएँ जान लेती हैं कि कहाँ दर्द है और कहाँ मरहम रखना है… वो चुप रहीं। एक स्थिर नजर से उपर से नीचे तक देखा तो लगा कि ज़हन पर जमीं ख़लिश को बुहार दिया हो… मैं हल्का हो आया।
कुहू… !
वो सो रही है।
मैं उसके पास जाकर लेट गया। उसके मुँह में लगा अंगूठा हटाया और उसके बालों को सहलाने लगा। मन भर आया, बस एक यही तो पूँजी बची है मेरे पास… इसके बिना जीने की तो कल्पना तक दर्दभरी है…। नहीं, हर कीमत पर कुहू मेरी है।

गार्डन पहुँचते ही कुहू चहकने लगीं। गुलाब की क्यारी की तरफ गई और उस बड़े-से गुलाबी गुलाब को तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाते हुए मेरी तरफ इजाज़त के लिए देखा था। मैंने नजरों से बरजा… नहीं। वो मन मसोस कर लौट आई। उसने मेरी ऊँगली पकड़ ली थी। हम दोनों गार्डन की नम-हरी घास पर नंगे पैर टहल रहे थे। उसने सामने ऊँगली करते हुए पूछा था – पापा, यदि हम वहाँ पहुँच जाए तो हम स्काय को छू सकते हैं… नहीं? – उसने क्षितिज की तरफ इशारा किया था जहाँ आसमान-जमीन से मिल रहे थे।
मैं बार-बार आशा-निराशा में गोते लगा रहा था। – नहीं
उसने ठिठक कर मेरी तरफ देखा। मैं आगे बढ़ गया था, लेकिन रूकी हुई कुहू के हाथ में मेरी ऊंगली खिंच रही थी। – नहीं, क्योंकि स्काय होता ही नहीं है।
पापा…. – वो रूठ गई थी।– होता है, देखिए उस तरफ सन है उस पर। – उसने पश्चिम की तरफ डूबते सूरज को देखते हुए कहा था।
वो आसमान पर नहीं है, वो हैंगिंग है। – मैंने कहा।
तो क्या मून और स्टार्स भी हैंगिंग है?
हाँ…
बट पापा…- उसने कुछ देर सोचा- उस दिन हमने रेनबो देखा था कलरफुल हाफ सर्कल… इस कॉर्नर से उस कॉर्नर तक, वो? वो भी तो स्काय पर ही था।
नहीं वो भी हैंगिंग था।
पापा, हैंगिंग कहीं तो होगा ना… लाइक वॉल या फिर रूफ…।
मैं निरूत्तर था, इतनी छोटी बच्ची को शून्य और अंतरिक्ष कैसे समझाऊँ, लेकिन बस कोई जिद्द थी कि मैं उसकी बात न मानकर उसे सच समझाने की कोशिश कर रहा था। कैसे बताता कि अंतरिक्ष गतिमान है, पृथ्वी भी…। अब अपने सच में मैं ही उलझने लगा था। मैं सोचने लगा था कि उसे क्या जवाब दूँ।
पापा… – उसे लगा जैसे मैं कुछ और सोच रहा हूँ। – रेन भी वहीं से होती हैं और स्नो फॉल भी तो ना… !
उसके सवाल तो सरल थे लेकिन जवाब जटिल थे। अचानक उसे तितली दिखी और वो उसके पीछे चली गई। और मुझे छोड़ गई एक अलग-सी दुनिया में… मैं सोचने लगा कि कैसे इस प्रकृति का पूरा-का-पूरा कार्य-व्यापार हमें सहज और सरल लगने लगा। इसका सच जानने के बाद भी हमें इसके ‘होने’ और ‘न-होने’ पर संदेह नहीं हुआ। जब हमने इसे देखा तब हमें इसमें रहस्यमय, जानने-समझने, चौंकने और अभिभूत होने की कभी जरूरत क्यों नहीं लगी। इस गोलाकार पृथ्वी पieरk हमने कैसे घऱ, मोहल्ले, गाँव, देश और दुनिया बसा ली… कैसे हमने इमारतें तान ली… कैसे हमने इसे घेर लिया और कैसे इसे अपने लिए, अपने लायक बना लिया… इस पर कभी सवाल क्यों नहीं उठा… ? इस आसमान को हमने कैसे धरती की छत मान लिया…? और जब सच जाना तो जो देखा उस पर शक क्यों नहीं हुआ? हम कैसे ‘इसे भी’ और ‘उसे भी’ दोनों को सच मानने लगे?
कुहू थककर लौट आई है। लगा था कि उसके भीतर का सवाल भटक गया है, लेकिन नहीं – पापा, हारून कहता है कि उसके गॉड सेवंथ स्काय में रहते हैं, हमारे गॉड सिक्स्थ पर और एंजेल्स फिफ्थ पर… तो… यदि स्काय नहीं है तो फिर ये सब कहाँ रहते हैं?
उफ्फ… अब तो जवाब और भी जटिल होते जाएँगें। मैं झल्ला गया था – मुझे पता नहीं, बस स्काय नहीं होता है।
उसने मेरा हाथ जोर से झटका था और बिल्कुल सामने आकर खड़ी हो गई थी – होता है, होता है… होता है।
हम दोनों बहस करते-करते माँ के पास पहुँच गए थे। मैं अब उसे चिढ़ाने के मूड में आ गया था। नहीं होता है, नहीं होता है, नहीं होता है।
उसे मेरी बात बहुत बुरी लगी थी… दादी, पापा से कहो ना कि स्काय होता है।
मैंने उसे फिर से चिढ़ाया था – देखो माँ स्काय नहीं होता है ना… !
माँ फिर माँ होती है… वो समझ गई थी कि उन्हें किस तरफ होना है। उन्होंने कुहू को खींचकर अपनी गोद में बैठा लिया था – हाँ, स्काय होता है।
देखा… उसने जीत की खुशी जाहिर की थी।
मैंने फिर कहा – नहीं, दादी को पता नहीं है। स्काय नहीं होता है।
अब वो रोने लगी थी – दादी, देखो पापा को… – उसने रोते-रोते कहा था – दादी आपसे बड़ी है, वो सब जानती हैं, स्काय होता है।
माँ ने मुझे नजरों से झिड़का था। मैंने हार मानते हुए कहा था – ठीक है स्काय होता है। कुहू खुश हो गई थी और आकर मुझसे लिपट गई। माँ भी खड़ी हो गई थी, हम गार्डन से बाहर चले आए।
कुहू…।– मैंने आवाज लगाई, लेकिन वो सो गई थी।
हम लौट रहे थे। पीछे कुहू सो रही थी। माँ बगल की सीट पर बैठी थी। तूने रूलाया क्यों? – माँ ने नाराज़गी से पूछा था।
अरे, ये तो आप भी जानती हैं कि आसमान नहीं होता है।
हाँ, लेकिन बच्ची तो नहीं जानती हैं ना!
तो उसे भी जानना चाहिए ना… ! आखिर इस दुनिया में सर्वाइवल के लिए उसे सच जानना ही चाहिए ना… ! – मैं थोड़ा तल्ख हो गया था।
सब जान जाएगी, दुनिया ने किसे छोड़ दिया है, जो इसे छोड़ेगी। और ये किसने कहा कि सच जान जाने मात्र से ही दुनिया में सर्वाइव किया जा सकता है? देख उसकी दुनिया कितनी सुंदर है, तितली है, फूल है, आसमान है, आसमान पर चाँद-सूरज-सितारे हैं, इंद्रधनुष भी वहीं आता है आसमान के उस तरफ एक रहस्यमयी दुनिया है, जिसमें ईश्वर है, परियाँ हैं…। कितनी मासूम दुनिया है, कितनी मौलिक कल्पनाएँ है, जिसमें एक घर है, उसमें दिन में चाँद रहता है और रात में सूरज… चाँद के बहुत सारे साथी सितारे हैं। सूरज हरदम चाँद से लड़ता रहता है… और भी बहुत सारी…। हम क्यों इसे रूखा और बेमजा सच बताएँ, जो वो एक दिन जान ही जाएगी… हम न बताएँगे तब भी। – लंबा बोलने के बाद माँ हाँफने लगी थी।
घर आ गया था। कुहू को एहतियात से उठाकर सुला आया था। माँ किचन में चली गई थी। मैंने टीवी ऑन किया तो भारत-बांग्लादेश का कोई रिकॉर्डेड मैच चल रहा था। सचिन स्क्रीन पर नजर आ रहा था उसने बैट को हवा में लहराया और सिर उठाकर ‘आसमान’ की तरफ देखा। उसने क्रिकेट में इतिहास बनाया था 100 शतक लगाकर… वो भी तो जानता होगा ना कि ‘आसमान’ नहीं है।
मैं बाहर आ गया था, मैंने भी ‘आसमान’ की तरफ मुँह किया था और हाथ जोड़कर बुदबुदाया था… ‘न-होकर’ भी तू बड़ा सहारा है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply