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आओ करें स्मृतियों का आह्वान

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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कई दिनों से इस पंरपरा पर विचार आते रहे हैं… इसकी शुरुआत क्यों की गई होगी, और इसे मनाने के पीछे के हमारे कारण क्या रहे होंगे? क्या डर रहा होगा… या फिर परंपरा के पालन की कवायद या फिर महज जिम्मेदारी… सोचा तो लगा कि क्या परंपरा के निर्वहन हमें सिर्फ एक हृदयहीन अनुष्ठान की तरफ ही ले जाता है… क्या जो चीज बहुत भावनात्मक है, होनी चाहिए, होती होगी, वही कोरी परंपरा का रूप ले चुकी है… जबकि ऐसा क्यों होना चाहिए… ये बहुत भावनात्मक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक मौका है, अवसर है, गुजरे हुए वक्त को लौटा लाने का, यादों को आवाज देने का… बहुत खूबसूरत और भावनात्मक अवसर को शास्त्रों के रूखे ‘डूज और डोंट डूज’ में गँवाने की बजाए, उन्हें दिल से भावना से मनाएँ तो…. !
क्वांर मास यानी श्राद्धपक्ष, पितृपक्ष या फिर महालया की शुरुआत… अपने पूर्वजों को याद करने, सम्मान करने और उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने, उनके प्रति कृतज्ञ होने का एक मौका…। दुनिया के हर धर्म और हर परंपरा में इंसान अपने पूर्वजों को याद करता है, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करता है, उनसे आशीर्वाद ग्रहण करता है। क्यों न हो, हम उनकी परंपरा का हिस्सा है, उस शृंखला की कड़ी जो हमें उनके पूर्वजों से जोड़ती है और उन्हें उनके पूर्वजों से… और इस तरह हम इंसान के पूरे इतिहास से खुद को जोड़ते हैं। हम खुद को उस आदिम जोड़े तक ले जाकर जोड़ते हैं, जिसकी वजह से इस सृष्टि में इंसानी-समाज का विकास हुआ।
श्राद्ध हमारे धार्मिक रीति-रिवाजों का, हमारी शास्त्रोक्त परंपरा का अभिन्ना हिस्सा है। शास्त्रों के हिसाब से इंसान के तीन ऋणों में से एक ‘ऋण” पितृऋण से मुक्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं… शायद इसीलिए हमारे शास्त्रों में श्राद्ध का महत्व और उसके विधि-विधान का पूरा उल्लेख है। हमारा दर्शन ये कहता है कि आत्मा अमर है… और चूँकि आत्मा अमर है, इसलिए हमारे मृत पूर्वजों की आत्मा हमसे कुछ अपेक्षा रखती है और उन अपेक्षाओं पर खरा उतरना हमारी जिम्मेदारी है। क्या करना, क्या न करना, कैसे, क्यों और कब करना है आदि सबका पूरा-पूरा उल्लेख है। आम धारणा के हिसाब से इन दिनों आत्माएँ अपने परिवेश में विचरण करती है और श्राद्ध-कर्म करते हुए हम उन्हें तृप्त करते हैं, लेकिन जो आत्मा जैसी वायवी विचार पर यकीन न रखते हों, वे क्यों श्राद्ध करें…? फिर एक सवाल और उठता है कि क्या श्राद्ध महज एक शास्त्रिय अनुष्ठान है, एक परंपरा का निर्वहन है, महज एक जिम्मेदारी है? जिसे हमें निभाना है। क्या श्राद्ध-कर्म आत्माओं के संसार के प्रति पूर्वाग्रहों से पैदा डर की वजह से किया जाना चाहिए या किया जाता है? क्या ये महज एक रस्म है, जिसे संस्कारों के निर्वहन के लक्ष्य से किया जाना चाहिए?
कभी हम शास्त्रों और परंपराओं में निहित सूक्ष्म और भावनात्मक तत्व का विवेचन करते हैं…? नहीं, हम सारी परंपराओं का निर्वहन सिर्फ और सिर्फ इसलिए करें कि ये हमें संस्कारों में मिले हैं, इसलिए ये हमारी जिम्मेदारी है? और जिम्मेदारी से इत्तर भावना के उस स्तर तक हम कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं, जो हमें हमारे पूर्वजों से सीधे जोड़ता है, जो हमें ये मानने को मजबूर करता है कि वैज्ञानिक तौर पर हम अपने पूर्वजों का ही हिस्सा है… जब बात सिर्फ जिम्मेदारी या परंपराओं के निर्वहन की होती है, तब भावना और सम्मान गौण हो जाता है और यही हम श्राद्ध-कर्म के साथ करते हैं। शास्त्र क्या कहते हैं और ठीक-ठीक विधि-विधान क्या है? इस फेर में पड़े रहते हैं और पूर्वजों के प्रति हमारी भावना के सूक्ष्म-से तंतु की अनदेखी करते रहते हैं। पता नहीं इन रीति-रिवाजों की शुरुआत किस दर्शन और किस भावना के तहत की गई होगी, लेकिन अब ये सिर्फ विधान बन कर रह गया है। एक डर… एक उम्मीद कि पूर्वजों की आत्मा हमारी रक्षा करे… नितांत स्वार्थ…। जबकि श्राद्ध की परंपरा मानवीय जीवन की महान परंपरा का एक बेहद भावनात्मक, नाजुक और दार्शनिक अनुष्ठान है। ये प्रेम, सम्मान, कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त करने का मौका… एक मौका अपने पूर्वजों को याद करने का, उस कड़ी से खुद को जोड़ने का जो भविष्य की रचना कर रही है… जिसका एक सिरा अतीत से आता है। आत्मा जैसी कोई चीज है तो उसके लिए और नहीं है तो उसके लिए जिसकी वजह से हम भौतिक, नैतिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक वजूद लिए हुए हैं, हमें कृतज्ञ होना चाहिए, हमें उनके प्रति श्रद्धावनत होना चाहिए। गया जाकर पिंडदान कर देना और श्राद्ध की जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेने का तात्पर्य है कि हम इसे एक जिम्मेदारी की तरह, एक परंपरा की तरह इसलिए निभाए चले जाते रहे हैं क्योंकि हमने अपने बुजुर्गों को श्राद्ध करते देखा है, ये हमारी परंपरा है, ये हमारे सुखी जीवन के लिए आवश्यक है… तो क्या बस इतना ही… बस इतना ही है हमारे लिए श्राद्ध का महत्व…? ये चाहे है हमारी पारंपरिक व्यवस्था, शास्त्रों से जुड़ती, शास्त्रों में उल्लिखित… चाहे इसका कोई भी कारण शास्त्रों में बताया गया हो, लेकिन हकीकत में ये बहुत भावनात्मक, नाजुक, मीठा और प्यारा-सा अनुष्ठान है, यदि हम इसे महसूस करें। ये न तो ऋण से उऋण होना है, न ही किसी भय, जिम्मेदारी से किया जाने वाला अनुष्ठान है। इसका शास्त्र से कोई भी संबंध क्यों हो? ये तो महज भावना है, शुद्ध भावना…। अपने पूर्वजों के सम्मान और स्मृति का एक मौका, कृतज्ञ होने का एक अवसर…। ये हमारी अमर्त्य होने की आदिम इच्छा की भौतिक अभिव्यक्ति है, ये न होकर भी होने और मरकर भी जी जाने की आदिम प्यास का मानवीय रूपांतरण है…। ये हमारी प्यास और इच्छा का पारंपरिक विस्तार है और पूर्वजों की प्यास और इच्छा का आदर है… इतिहास के प्रति श्रद्धा है और भविष्य की आशा है। श्राद्ध-कर्म जिम्मेदारी नहीं है, शास्त्र भी नहीं है, बंधान भी नहीं, भय और परंपरा भी नहीं है… ये भावना है, प्यार, सम्मान, कृतज्ञता, दर्शन और इन सबसे उपर आध्यात्म है…।
बिना किसी भय, परंपरा और जिम्मेदारी के अहसास के, बिना किसी शास्त्रीय बंध्ान के महज अपने वजूद की शृंखला के प्रति थोड़ा भावुक होने का, थोड़ा भीगने का अपने पूर्वजों का स्मरण करने का, उनकी खुशी-दुख, पसंद-नापसंद को दोहराने का… उनके प्रति कृतज्ञ होने का, उनसे अपने संबंधों को जीवित करने का… देवताओं के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने से इत्तर उन इंसानों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का उत्सव है, जिनसे हमारी जीवन-शृंखला जुड़ती है, पूरी होती है, विस्तार पाती है, इसलिए कि वो हमारा विस्तार है, हमारे लिए महत्त है… सिर्फ मृत्यु हो जाने के बाद नहीं, जीते-जी भी…।
तो श्राद्ध-कर्म को शुभ-अशुभ, शास्त्रीय-अशास्त्रीय, सही-गलत, जिम्मेदारी-भय, ऋण-दोष से मुक्त करें… ये शास्त्र का नहीं, भावना का मामला है, जिम्मेदारी नहीं खुशी है। इस श्राद्ध-पक्ष में शुभ का आह्वान करें, मन से, भावना से पूर्वजों का स्मरण करें, श्रद्धा करें, उम्मीद करें अपने भविष्य की और ध्ान्यवाद दें, इतिहास को, जिनकी वजह से हम हैं, बिना किसी भय के, स्वार्थ के… सिर्फ भावनाओं के लिए…।

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