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टूटे मासूम यकीनों ने बनाया दुनियादार

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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उसकी दुनिया छोटी थी और उसमें दोस्त बिल्कुल भी नहीं… जिज्ञासा तो हुआ ही करती थी, लेकिन बड़ों से कभी सवाल नहीं पूछे। बस खुद से ही बातें किया करती थीं, आज भी उसे ऐसा करना प्रिय है। इसलिए सवाल भी खुद ही उठाती, जवाब भी खुद ही दिया करती है… चाहे जवाब बहुत बचकाने हो…. राय खुद बनाती और उम्मीद भी खुद ही करती। ना जाने कैसा मन था, उसका कि वो जो कुछ भी सुनती थी, उसे सही मान लिया करती थी। जानना तो चाहती थी, लेकिन पूछने से जाने क्यों बचती थी। किसी स्थापना को ग्रहण करती थी, लेकिन उसे तब तक सच नहीं मान पाती थी, जब तक कि वो उसे टेस्ट ना कर लें…. फिर भी सहज विश्वास शायद बचपन की प्रवृत्ति ही हुआ करती है और इसी से पनपते थे अलग-अलग तरह के पूर्वाग्रह… बचपन भर उसने सुना है, धर्मग्रंथों से कि पूरे और सच्चे मन के साथ ईश्वर से प्रार्थना करो, तो उसे ईश्वर सुनता जरूर है…. उसने इसे सहेज लिया था, जरूरत के वक्त आजमाने लिए… और जल्द ही उसने जरूरत भी जुगाड़ ही ली थी। दूर के रिश्ते की बहन के मामा ने गुस्से में आत्महत्या करने की कोशिश की थी और उन दिनों वो अस्पताल में अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। बहन से मिलकर लौटी तो उसकी बार-बार भर आती आँखें उसे याद आती रही और उसने प्रार्थना करना शुरू कर दिया…. ‘हे भगवान! सरु मामा बच जाए…।’ 80 प्रतिशत जली हुई हालत में उन्हें अस्पताल में संघर्ष करते हुए 6 दिन हो चुके थे… उसने भी लगातार प्रार्थना का क्रम जारी रखा… ये सोचते हुए कि आखिर उसका सुना हुआ गलत कैसे हो सकता है। लेकिन पाँच दिन सच्चे मन से की गई प्रार्थना तब महत्वहीन हो गई, जब सरु मामा नहीं बच पाए… शायद उसकी छोटी-सी जिंदगी में उसके भोले-से विश्वास को पहली ठेस लगी थी। उस वक्त उसे बस अपने ‘सच्चे मन’ पर शक हुआ था… और उसने अपने विश्वास की टेस्टिंग को किसी नतीजे पर नहीं पहुँचने दिया था।

स्कूल में चाहे कोर्स पीछे चल रहा हो, माँ उसे पढ़ाने के मामले में हमेशा ही प्रोम्ट रही हैं। उस रात माँ उसे इतिहास पढ़ा रही थी। लॉर्ड माउंटबेटन वॉयसराय बनकर भारत आए थे और अपने साथ देश को बाँटने की स्कीम भी लाए थे। गाँधी से मिले तो उन्होंने उनकी स्कीम को ये कहकर खारिज कर दिया था कि बँटवारा उनकी लाश पर होगा….। उसे पहले तो ये बात ही समझ नहीं आई कि देश कैसे बँट सकता है… क्या वो कागज है, जिसका एक टुकड़ा उसे और दूसरा उसके भाई को पकड़ा दिया जाए और दोनों को खुश कर दिया जाए… खैर, वो चैप्टर उस दिन खत्म हो गया था, लेकिन उसका मन गाँधीजी की बात पर अटक गया था। यदि गाँधीजी ने कहा है कि बँटवारा उनकी लाश पर होगा तो फिर वो तो हो ही नहीं सकता, आखिर कोई भी उनकी बात कैसे टाल सकता है? जब वो सोई तो इस आश्वासन के साथ कि अब चूँकि गाँधीजी ने ही इसे खारिज कर दिया है तो बँटवारा तो होगा ही नहीं। तो बँटवारा एक दिन के लिए टल गया था… 🙂

अगली रात जब माँ अपने गीले हाथ पोंछती उसे बैग खोलने का कह रही थी, तब उसने माँ से पूछा था – ‘देश तो नहीं बँटा ना…!’ माँ ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा था… चल आगे पढ़ते हैं, शायद माँ भी उसके विश्वास को खुद नहीं तोड़ना चाहती होगी। हाँ….. तो नेहरू ने माउंटबेटन की स्कीम को मान लिया था… ‘नेहरू ने मान लिया था, कैसे मान लिया था, जब गाँधीजी ने नहीं माना तो नेहरू कैसे मान सकते थे…? वो तो गाँधीजी का कितना सम्मान करते थे… फिर, कैसे… ? तो अब क्या गाँधी को मरना पड़ेगा, इतना बड़ा आदमी बस ऐसे ही मर जाएगा।’ – माँ पढ़ा रही थी, लेकिन उसके भीतर सवाल-जवाब चल रहे थे।

उसे बहुत निराशा हुई थी कि देश बँट गया था और गाँधीजी ने अपने प्राण नहीं त्यागे थे… वो ये समझ ही नहीं पाई थी कि सिर्फ कह देने भर से मौत नहीं आ जाती। उसे लगता था कि साधारण इंसान के साथ ऐसा नहीं होगा, लेकिन गाँधी तो ‘ईश्वर-सदृश्य’ है… वो तो जब चाहे तब देह-त्याग कर सकते हैं… लेकिन उनके ना चाहते हुए देश बँट गया, उसे ये यकीन ही नहीं हो रहा था।

कुछ बड़ी हो गई थी… गुलज़ार की फैन भी….। किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था, बाकी क्या था ये तो उसे समझ नहीं आया, बस इतना समझ आया कि उसका पसंदीदा गाना – ‘दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन’ जो कि गुलज़ार का लिखा बताया जाता है, असल में गुलज़ार ने ग़ालिब़ के कलाम की ‘चोरी’ की थी (उसकी नजर में चोरी-चोरी है, चाहे शुरुआत की दो लाइनें ही क्यों न हो?) उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि गुलज़ार जैसा इंसान ‘चोरी’ कैसे कर सकता है…?

शायद हरेक के बचपन में कुछ बहुत भोले-से यकीन हुआ करते होंगे… आखिर बचपन तो सिर्फ स्याह-सफेद ही समझता है, उसे कहाँ ‘ग्रे’ की कल्पना होती है…? उसे तो बस ‘सही-गलत’, ‘झूठ-सच’, ‘ईमानदार-बेईमान’ और ‘अच्छे-बुरे’ का ही ज्ञान होता है…. उसे जीवन की जटिलता और उसके परतदार होने का अनुमान तक नहीं होता… उसके लिए जीवन बस ‘जैसा दिखता है, वैसा ही होता है’। धीरे-धीरे उसका यकीन पतला होता चलता है, या यूँ कह लें कि धीरे-धीरे जब जीवन की पर्ते उसके सामने खुलती हैं, तब उसे महसूस होता है कि सही-गलत, सच-झूठ, ईमानदार-बेईमान और अच्छे-बुरे के ‘बीच’ कहीं जीवन हैं…. सिरों पर नहीं।

खैर, तो बात ये है कि हम अपने-अपने बचपन को टटोलें और बताएँ कि कौन-से मासूम विश्वास थे, जो हमने सहेजे थे और जो टूट गए थे… सबका समय शुरू होता है, अब…

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