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खोलें पिटारी अपने बचपन की….

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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कुछ चीजें ऐसी होती है, जिनके करने का कोई उद्देश्य नहीं है, कोई मतलब नहीं है… वो बेकार है, वो शौक भी नहीं है, मनोरंजन भी नहीं और खेल भी नहीं… फिर भी उन्हें करना अच्छा लगता है… क्या आपके पास ऐसा कोई मजेदार-सा शगल है… यदि है तो यहाँ बाँटे…:-)

अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों से उसकी उम्र कम थी। दो-चार महीने नहीं बल्कि 2-3 साल… शायद इसीलिए उसकी दोस्त उसके साथ गार्जियन जैसा बर्ताव किया करती थीं। उसका स्कूल बैग खुद उठाकर ले जाना, इस बात का ध्यान रखना कि कोई उसे टीज न करें, कोई उसे मारे या फिर परेशान न करें। उसके होमवर्क की कॉपी स्कूल पहुँचते ही देख लिया करतीं कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया है। लंच में साथ बैठाकर लंच करातीं, घर से स्कूल अपने घेरे में ले जातीं और अपने घेरे में सुरक्षित घर छोड़ जातीं… शायद इसीलिए वो बढ़ती तो जा रही थीं, लेकिन बड़ी नहीं हो पा रही थीं। घर में माँ-ताई का संरक्षण और स्कूल में दोस्तों का…। बहुत सीमित दुनिया थीं, एक दोस्त थी, जिसका घर दूर था, ज्यादा नहीं, लेकिन उसके लिहाज से दूर था, तो उससे तो सिर्फ स्कूल में ही मुलाकात हुआ करती थीं, लेकिन स्कूल में ही वो उसकी जिम्मेदारी इस तरह से उठाती थीं, जैसे कि वो माँ हैं… हाँ तो दोनों ही दोस्त उनसे तीन-चार साल छोटी (अब ये तीन चार साल छोटी बच्ची उनकी क्लास में कैसे आ पहुँची, इसकी कहानी लंबी है, वो फिर कभी) दोस्त की बेटी की तरह साज-संभाल किया करती थीं।

उन दिनों यूँ आठवीं क्लास तक पहुँचते-पहुँचते आमतौर पर लड़कियाँ घर संभालने लग जाया करती थीं, लेकिन उसकी बात अलग थीं, एक तो उम्र से पहले ही आठवीं में पहुँच गई थी, दूसरे घर-बाहर हर कहीं उसे संरक्षित कर रखा जाता था, तो वो चाय भी बना पाती इसमें सबको शक हुआ करता था। गर्मियाँ शुरू हो चुकी थी, और छुट्टियाँ भी लग गई थीं, उन दिनों छुट्टियाँ मतलब पूरी छुट्टियाँ हुआ करती थी… ना कोई हॉबी क्लास ना कोई समर कैंप… माँ-चाची-दादी-ताई चिल्लाती रहे… लेकिन तेज धूप में भी बच्चे गली-मोहल्ले में उधम मचाते फिरते थे। उस सुबह जब वो अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेल रही थी, तभी उसकी स्कूल की दोस्त आई – आज मम्मी मौसी के घर गईं है, तू आएगी ना मेरे घर…?

हाँ… उसने गर्दन हिला दी और फिर से लग गई खेलने में…। उसकी दोस्त बड़ी थी, इसलिए बच्ची की मनस्थिति समझती थी, चली गई उसकी हाँ सुनकर…।

खैर शाम को उसकी दोस्त उसे अपने घर ले गई, उस सँकरे, लेकिन लंबी चिंदी जैसे किचन में अपने सामने एक पाट लगाकर उसकी दोस्त ने उसके बैठने के लिए जगह की… फिर पूछा – बता क्या खाना है?

हर बार की तरह ही उसका उत्तर था – दाल-चावल… उसकी फेवरिट डिश, तब भी और अब भी।

घर में उन दोनों के अतिरिक्त और कोई नहीं था, जल्दी से खाना खा लिया। उन दिनों गर्मियों में लड़कियाँ कुछ सीखती थीं, उसे छोड़कर… उसका किसी भी चीज में मन नहीं लगा करता था, आज सोचती है तो समझ नहीं पाती कि बचपन भर आखिर उसने किया क्या? तो खाने के बाद उसकी दोस्त ने अपना पिटारा खोला था… पाँच-पाँच पैसे के सिक्के, कुछ काँच की पतली नलियाँ, अलग-अलग साइज और शेप में कटे गट्टे के टुकड़े और फेविकोल और सिल्वर पेंट… उसने चमकती आँखों से सारी चीजों को देखा। उसकी दोस्त ने उसे समझाया ये पाँच के सिक्के इस गत्ते के टुकड़े पर चिपकाने हैं… उसने फेविकोल में अपनी ऊँगली डुबोई तो उसकी दोस्त जोर से हँसी… पागल इस स्टिक से लगा ना… तब तक तो फेविकोल उसकी ऊँगलियों में लग चुका था, वो थोड़ा घबराई तो उसकी दोस्त ने कहा, कोई बात नहीं सूखने पर उतर जाएगा।

फेविकोल सूख गया और अब वो उसे उतारने लगी… जैसे कि चमड़ी उतार रही हो… उसे वो करने में इतना मजा आने लगा कि वो बार-बार फेविकोल में अपनी ऊँगलियाँ डूबोती और बार-बार उस पतली सी झिल्ली को उतारती…। देर तक वो वही करती रही और उसकी दोस्त ने उन पाँच के सिक्कों से एक जहाज खड़ा कर लिया।

उसे आज भी फेविकोल में ऊँगलियाँ डूबोना और सूखने पर उसे उतारना बहुत पसंद है, वो घंटों यही करती रह सकती है।

तो जरा अपना बचपन भी ढूँढ कर बताए कि आपको क्या करना पसंद था और आज तक पसंद है… 🙂

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