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यादों की रहगुज़र, रहगुज़र-सी यादें…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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साल भर में यही कुछ दिन हुआ करते हैं, जब वो खुद हो जाती है… वरना तो अंदर से बाहर की तरफ तनी रस्सी पर नट-करतब करते हुए ही दिन और जिंदगी गुजर रही होती है। कभी संतुलन बिगड़ जाता है, गिरती है, दर्द-तंज सहती है, असफल होती है और फिर उठकर करतब दिखाने लगती है। कभी-कभी सोचती है, क्या सबको यही करना होता है। क्या अंदर-बाहर के बीच हरेक के जीवन में इतनी ही दूरी हुआ करती है? हरेक को उसे इसी तरह पाटना होता है…? या ये उसी का अज़ाब है…! उसे अक्सर लगता है कि खुद को ही अच्छे से नहीं जाना जा सकता है तो हम दूसरों को कैसे जान सकते हैं? और कैसे, किसी के प्रति जजमेंटल हो जाया करते हैं? आखिर हम किसी की मानसिक और भावनात्मक बुनावट को कितना जानते है? इंसान तो अपने परिवेश में ही घड़ा जाता है ना…! हम उसकी जरूरत और परिवेश पर विचार किए बिना ही, उसे सही-गलत कैसे ठहरा सकते हैं…?
दो स्तरों पर लगातार विचार चल रहे थे… पता नहीं कमरा कैसा होगा? इंटरनेट पर बुकिंग करवाने पर यही होता है… गाड़ी ने बाहर छोड़ दिया था… कुली ने जब लगेज उठाया तो असीम ने उसे पहियों पर खींचने के लिए हैंडल खोलकर दे दिया…। चढ़ाव पर लगेज की गड़घड़ की तेज आवाज के बीच सारे विचार अटक गए। जैसे ही लगेज की गड़घड़ आवाज रूकी, गहरी शांति फैल गई…। जब कमरे में पहुँचे तो पूर्व की तरफ खुलती बड़ी-सी खिड़की से धूप की रोशनी में धुँधलाते पहाड़ नजर आए… सारी कुशंकाएँ भी धुँधला गई। अटेंडर ने पानी रखा, असीम ने चाय लाने के लिए कहा तो वो चला गया। असीम ने सूटकेस खोलकर कपड़े निकाले और बाथरूम चला गया। वो कमरे में अकेली हो गई। तेज साँस खींची… जैसे उस शांति को भीतर भर लेना चाहती हो। खिड़की के पास रखी कुर्सी पर जाकर बैठ गई। इतनी शांति पता नहीं कितने सालों से नहीं मिली उसे… जब बाहर सबकुछ शांत होता है, तब भीतर अशांति चलती है, बाहर-भीतर शांति हो… ये कभी-कभी ही तो होता है।
इस बार फिर से घूमने के लिए मसूरी इसलिए ही तो चुना है, कि घूमने की हवस ना हो… यहाँ का चप्पा-चप्पा देखा हुआ है। पिछली बार आए थे, तब भी लगभग हफ्ते भर यहाँ रहे थे, इस बार भी इतना ही लंबा टूर है। शांति से रहने, पढ़ने, महसूस करने और खुद से संवाद करने का लक्ष्य लेकर ही तो दोनों यहाँ आए हैं। और उसके लिए इससे बेहतर और कौन-सी जगह होगी…।
चाय बनाने, खाना-नाश्ता, लांड्रीवाला, माली, सब्जीवाला, मैकेनिक, बाथरूम का टपकता नल, बदरंग हुए जा रहे पर्दे… गर्द जमी हुई टेबल और अस्त-व्यस्त किताबों को व्यवस्थित करने का अटका पड़ा काम… म्यूजिक सिस्टम को ठीक करवाना और इंटरनेट कनेक्शन का बंद हो जाना… बूटिक से कपड़े उठाना और गाड़ी में फ्यूज डलवाने जैसे सारे रूटीन से भरकर ही तो यहाँ आए हैं। अपनी दुनिया न हो तो दुनियादारी भी वैसी नहीं होती है। सोचा तो था कि बस दिन भर कमरे में ही रहेंगे… लेकिन पहले दिन उसे साध नहीं पाए…। लगा कि पहले उस सबको रिकलेक्ट कर लिया जाए जो पिछली बार यहाँ छूट गया था। दिन भर दोनों उन निशानों को इकट्ठा करने में लगे रहे जो पिछली बार जगह-जगह छोड़े थे, छूट गए थे। यहाँ कॉफी पिया करते थे, और यहाँ से सॉफ्टी लिया करते थे…। यहाँ की फोटो है और यहाँ के एकांत में… तुम्हें पता है… यहाँ पहले कुछ दुकानें हुआ करती थी। हाँ और ये एंटीक की दुकान… तब भी वैसी ही थी… जरा भी नहीं बदली। और यहाँ से आडू खरीदा करते थे, याद है हमने पहली बार जाना था कि असल में आडू का स्वाद कैसा होता है! मैदानों में हम तक जो पहुँचते हैं, वो तो बस फल ही है… स्वाद तो यहाँ के आडुओं में हुआ करता है। और लीची का शर्बत… कितनी खूबसूरत बॉटल में मिलता था! यहाँ तुम थककर रो पड़ी थी और यहाँ हमने झगड़ा किया था…। और फिर मनाने के लिए चॉकलेट खरीदी थी यहाँ से… । यहाँ मेंहदी बनवाई थी… कितनी स्मृतियाँ हैं यहाँ हर जगह बिखरी हुई…। उसे लगा कि ये भी रिलेक्स होने का एक तरीका है।
देर रात जब थककर कमरे पर पहुँचे थे तो जैसे 10 साल पुरानी स्मृतियों को जिंदाकर लौटे थे। ठंड बढ़ गई थी, मोटे ब्लैंकेट और फिर उस पर रजाई… इतना वजन कि सारे बदन को आराम महसूस होने लगा। आखिर दिन भर चल-चलकर ही तो बीते हुए दिनों को इकट्ठा किया था। असीम तो थककर सो गए थे, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। अँधेरा और शांति… शांति इतनी कि उससे सन्नाटे को दहशत होने लगे… स्मृतियों से ध्वनियाँ चुन-चुनकर लाता रहा मन… ना तो कुत्तों के भौंकने की आवाज थी और ना ही झींगुर की… इतनी गाढ़ी शांति में उसे साँस लेना भी गुनाह लग रहा था, यूँ लग रहा था जैसे ये जादू, जिसके लिए वो लगातार तरसती रही है टूट जाएगा, भंग हो जाएगा…। उसी जादू में उसे नींद आ गई। असीम की बड़बड़ से उसकी नींद खुली थी – यार इतनी रात लाईट जलाकर क्या कर रही हो…?
उसने आँखें खोली तो खिड़की से तेज रोशनी आ रही थी… – जरा उठकर देखो, खुद सूरज तुम्हारे कमरे में आकर जल रहा है…। – उसने असीम को गुदगुदाकर कहा।
ओह… क्या टाईम हुआ होगा…! – कहकर असीम ने टेबल पर से घड़ी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उसने असीम का हाथ खींच लिया। – सूरज निकल आया है… क्या ये कम है!
पता है, इस कमरे में इस बड़ी-सी खिड़की के अलावा और सबसे खूबसूरत क्या है…?
खुद कमरा…
ऊँ हू… इसमें घड़ी नहीं है…। – खुलकर हँसी थी वो… असीम लपका था, उसकी तरफ। वो जानता था कि उसने ये क्यों कहा था।

छोड़ दो सब… मोबाइल, घड़ी, लैपटॉप, दिन-रात का खयाल… बस घुलने ही आए हैं, हम यहाँ… – हवाघर की बेंच पर बैठी थी… भुट्टा खाते हुए… – और हाँ महँगा-सस्ता भी… – और शरारत से मुस्कुराई थी।

कभी खुद की बुद्धि को विश्राम देकर, दूसरों की नीयत पर भी विश्वास किया करो… दुनिया का हर आदमी घात लगाकर तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है।

हर वक्त खुद को लादे हुए घूमती हो, थक नहीं जाती हो…! मुक्त करो खुद को… आजाद हो जाओ… किसी दिन बुद्धिमान और खूबसूरत नहीं लगोगी तो आसमान टूटकर गिर नहीं जाएगा…।
हाहाहा… आसमान तो है ही नहीं… टूटकर गिरेगा क्या खाक…!
है कैसे नहीं… सिर उठाकर देखो, तुम्हारे दुपट्टे के रंग का है… । –असीम ने दुपट्टे के कोने को अपनी ऊँगलियों में लपेट लिया था।
ये मैंने नहीं कहा है, तुम्हारा साईंस ही कहता है।
तुम्हें क्या दिखता है? जरा आसमान की तरफ सिर उठाकर देखो… साईंस को छोड़ो
मुझे दिखता है आसमान, मेरे दुपट्टे के रंग का… जिस पर बादल है, तुम्हारी शर्ट के रंग के…
तो बस… वो है… पता है तथ्य जीवन को जटिल बना देते हैं…।
तथ्य या फिर सत्य…!
नहीं… तथ्य… सत्य तो कुछ है ही नहीं।

दिन-पर-दिन गुजर गए… सुबह, दोपहर, शाम और रात… दुनिया और दुनियादारी से दूर… भटकाव, अपेक्षा, उलझन, दबाव और तमाम जद्दोजहद से दूर पंछी की तरह उन्मुक्त दिन उड़ गए, हवा हो गए। अब… अब लौटना है… कोई भी वक्त चाहे अच्छा हो या बुरा, लंबा टिक जाता है तो रूटीन हो जाता है। घर लौटने की कल्पना भी उत्साह भर रही थी। हरिद्वार से ही रिजर्वेशन है… एक दिन पहले ही दोपहर वहाँ पहुँच गए थे।
बहती हुई गंगा को छुए बिना कैसे लौटा जा सकता है!
बहती नदी जादू होती है
बहाकर लाती है ना जाने क्या-क्या
ले जाती है ना जाने क्या-क्या
माना कि बहना ही जीवन है
लेकिन
नदी-सा बहना
खुशी भी है और
त्रास भी…
क्योंकि बहना चुनाव हो तो
ठीक
अगर मजबूरी हो तो…?

तो… तो… त्रास, देखो गंगा को, लोग अपनी आस्था के जुनून में क्या-क्या बहाते जा रहे हैं। संध्या-आरती का समय था, हर की पौड़ी पर आरती के लिए मजमा इकट्ठा था। बाकी घाटों पर लोग एक दोने में फूल और दीया लेकर गंगा में प्रवाहित कर रहे थे… क्या ये सारा कूड़ा नहीं है?
असीम ने आँखों से डपटा था – तुम आस्था पर सवाल कर रही हो…!
मैं सिर्फ जानना चाह रही हूँ।
हाँ ये भी कूड़ा है। – असीम ने गंगा के ठंडे पानी में पैर डालते हुए कहा था
तो क्या किसी को ये जरा भी खयाल नहीं आता है कि कितना साफ पानी बह रहा है और उसमें ये कूड़ा क्यों बहाया जा रहा है? क्या सरकारें भी नहीं सोचती…! – गहरी वितृष्णा से भरकर उसने कहा था।
तुम फिर से तर्क पर आ रही हो…
ये तर्क है…? ये आस्था है, सौंदर्य-बोध है… छोड़ों।

दोनों अलग-अलग किनारों पर जा बैठे थे। असीम कैमरे से आसपास को खंगाल रहा था। वो बस बैठी थी… तेज लहरों को एकटक देखते हुए…। धारा का वेग उसकी चेतना को भी बहा ले जा रहा था। वो अचानक खड़ी हुई… घाट की पहली सीढ़ी पर पैर रखा… फिर दूसरी… फिर तीसरी… लहरों ने उसे कमर तक भिगो दिया था उसने बेखयाली में जंजीर को छोड़कर चौथी सीढ़ी की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि खयाल लौट आया – ये क्या कर रही थी तू…?
उसने जंजीर पकड़कर आसपास नजरें दौड़ाई, असीम थोड़ी दूर जाकर फोटो ले रहा था… कोई भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था। यदि ये बेखयाली और नीचे की सीढ़ियों की तरफ ले जाती तो…! उसे खुद से ही वहशत होने लगी…। वो लौट आई थी अपनी चेतना में… यदि भीतर का ये आवेग लहरों के हवाले कर देता उसे तो…! यदि वो बह जाती तो निश्चित ही कहीं दूर उसकी लाश मिलती… या शायद वो भी नहीं… क्योंकि बहाव तो क्रूर होता है… निर्मम भी…। उसने अपनी दुनिया में नजरें दौड़ाई… उसके न होने से किसकी दुनिया में फर्क आता… सबकी दुनिया भरी-पूरी है… सिवाय असीम के… सिर्फ असीम की दुनिया ही सूनी होती… उसे अचानक असीम पर लाड़ आया। वो अब भी पहली सीढ़ी पर खड़ी थी। असीम लौट आया था… चलें, सुबह जल्दी उठना है।
उसने झुककर अंजुरी में गंगा को भरा और अपने सिरपर उँढेल लिया…। ऐसा आवेग कभी आता नहीं है, उसने हाथ जोड़े तो ना जाने क्यों आँसू उमड़ आए… पलट कर चप्पल पहनी और असीम का हाथ थामे हुए भीड़ में से रास्ता बनाते दोनों लौट आए…।

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