Menu
blogid : 5760 postid : 248

मम्मी से मी तक का सफर

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
  • 93 Posts
  • 692 Comments

बचपन में कई बार सोचती थी, रंग पिता से पाया है, स्वभाव भी लगभग उन्हीं का है, कद मम्मी से मिला है, लेकिन शक्ल… बहुत कोशिश करके भी अपनी शक्ल का मिलान माँ की शक्ल से नहीं कर पाती थी। इन दिनों के अपने कुछ फोटो देखती हूँ तो लगता है कि मम्मी उतर आई है, शक्ल में…। कई बार आईने में भी देखते हुए भ्रम होने लगता है कि ये मैं नहीं हूँ, आजकल बिल्कुल मम्मी की तरह ही नजर आने लगी हूँ…। कई बार मम्मी की तरह की चीजों पर रिएक्ट करती हूँ और चौंक जाती हूँ – अरे, ये कैसे हुआ! बहुत साल पहले फिल्म अभिनेत्री रेखा का एक इंटरव्यू पढ़ा था, उसमें उन्होंने बताया था कि – आजकल माँ की तरह ही रहने लगी हूँ। ज्वैलरी, कपड़े औऱ मेकअप का ढंग… दरअसल उम्र बढ़ने के साथ इंसान अपनी जड़ों की तरफ लौटता है। ठीक भी तो है, इंसान की जड़… यानी माँ
वैसे तो रिश्तेदार कहते भी हैं कि मैं अपनी मम्मी की तरह दिखती हूँ। बस रंग उनका नहीं मिल पाया… इसका अफसोस है और हाँ… मिजाज भी। कोशिश करके भी नहीं हो पाती मम्मी की तरह बेलौस… बेफिक्र, मस्त, जीवंत। मुझे गंभीर और विचारग्रस्त देखते हुए अक्सर माँ कहा करती हैं कि तू मेरी तरह नहीं है, और हर बार मैं हँस दिया करती थी, लेकिन अब लगता है कि काश मैं उनकी तरह हो पाती।

शादियों का सीजन था, हमारे घर में बर्तन साफ करने वाली महिला ने पहले तो कुछ बताया नहीं, बस उस सुबह अपने बेटे से फोन करवा दिया – आज माँ नहीं आ रही है। क्यों और शाम को आएगी या नहीं, कुछ भी पूछने का समय नहीं दिया और फोन काट दिया। उसके बाद फोन लगातार बंद मिला। अब चाहे कुछ कर लो, कितना ही कुड़कुड़ा लो, लेकिन काम तो करना ही है। रात को पतिदेव को खाना बनाने का शौक चर्राया, सो तबीयत से बर्तन जले थे। उन बर्तनों को रगड़ते हुए फिर से मम्मी की याद आई। मम्मी को कोफ्त थी काम करते हुए बर्तनों को जलाने से। कई बार इस पर बहस हुआ करती थी, बर्तन वाली आती तो है फिर क्यों?
उनका लाजबाव करने वाला जवाब – साफ करने में उसे भी दिक्कत होती है।
कोई तर्क हुआ नहीं करता था, इसलिए भुनभुना लेते थे। तेज आँच पर काम पूरा कर भागने की हड़बड़ी जो रहती थी। उन जले हुए बर्तनों को साफ करते हुए माँ की बात समझ आ रही थी और उनकी करूणा भी।
आजकल लगभग हर दिन मम्मी-पापा याद आते हैं। शायद ऐसा तभी होता है, जब हम जिम्मेदार हो जाते हैं, तब ही जान पाते हैं कि जिंदगी के कुछ उसूल होते हैं, कुछ नियम और बहुत सारा अनुशासन भी। माँ ने कभी कोई बात इस तरह से नहीं सिखाई, उन्होंने नहीं सिखाया कभी कि ये करो या वो करो, बस अपने व्यवहार से वो बीज डालती चली गईं। बस वो करती रहती हैं। पानी-बिजली को लेकर बहुत सख्त हैं, तब भी थीं औऱ आज भी। वो जिस जगह से आईं थीं, वहाँ पानी औऱ बिजली दोनों की ही किल्लत थीं, शायद इसलिए वे उस दर्द को समझ पाईं थीं। आज जब खुद में पानी-बिजली बचाने की जो सनक देखती हूँ तो लगता है ये मम्मी का ही दिया हुआ है, जो बहुत गहरे उतर गया है। मम्मी कभी व्यक्त नहीं कर पाई अपने प्यार को…। वहीं से आई है शायद स्वभाव की ये रूकावट… कहना नहीं आ पाया कि – मुझे तुम्हारी चिंता है, मुझे तुमसे प्यार है।

पता नहीं ये विरोधाभास कब पनपा, लेकिन मम्मी और मैं दो अलग-अलग सिरों पर खड़े हैं, उनका दुख ये है कि मैं उनकी आदर्श बेटी नहीं हो पाई… मैं वो नहीं हो पाई जिस पर मम्मी गर्व कर पाए और यही मेरा भी।
बचपन से मम्मी ही कहती आई हूँ, लेकिन पिछले कुछ सालों से मैं उन्हें मी कहने लगी हूँ। ऐसा कब कहना शुरू किया ये याद नहीं है। मम्मी शायद इसका मर्म ना समझें, लेकिन अब जबकि खुद की शक्ल में, वजूद में मम्मी का अक्स नजर आने लगा है तो तमाम असहमतियों, विरोध, विरोधाभासों और अलग जीवन-दर्शन के बावजूद मैं खुद में मी को बढ़ते, पलते और विकसित होते पाती हूँ।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply