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फेसबुक पर की गई जुगाली…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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दुआओं की बरकत बनाए रखिए… इन्हें ना तो हम उगा सकते हैं और ना ही खरीदकर ला सकते हैं… बस ये ऐसे ही आती है हमारी जिंदगियों में… 🙂

हर बार आने वाले वक्त की तरफ
पीठ करके
होता है हिसाब
खोने-पाने, खुशी-दुख का
हर बार
उस हिसाब की तफ़्सील
खो जाती है… 😀

हर तरफ वसंत का सुरूर है, बस मन ही इस सबसे दूर है… 🙁

कितना कुछ ऐसा है जिसे व्यक्त करने की कूव्वत भाषा में नहीं है… फिर भी हम कितने शब्द लगातार व्यर्थ करते रहते हैं, बस इस एक उम्मीद में कि शायद हम वो कह पाए हैं, जो हमने महसूस किया है… कितनी बेबसी है 
जो हम बदल नहीं सकते, उन चीजों को स्वीकार कर लेना चाहिए..
क्या ऐसा सबके साथ होता है कि गर्मी के मौसम में उदास होने का मन करता है….
कभी चाहूँ कि शब भर सितारों से चुहल करूँ
कभी चाहूँ कि सहर होते सूरज से गुफ्तगूँ
कभी परिंदों का हमसफर होना चाहूँ
गोकि किसी को भी जमीं की आरजू ही नहीं…
सृजनात्मकता एक ही साथ दो अलग-अलग चीजों की माँग करती है – संवेदनशीलता और निर्ममता… 

आसान होता है यदि पदार्थ को ही साधना हो… बस दौड़ में बने रहें… असफल हुए हैं तो सफल भी होंगे ही… आसान होता है तब भी जीवन, जब बस आत्मा हो साधना हो… दौड़ से अलग… शांत, निर्विकार, निस्संग और दुनिया के कारोबार से उदासीन…। मुश्किल तब होती है, जब पदार्थ और आत्मा दोनों को ही साधना हो…. दौड़ में भी हो और दौड़ से बाहर होना भी चाहते हो… शायद यही दुख है और यही बेचैनी भी… :-

लगता है सूरज पर भी ठंड का प्रकोप है, शाम होती नहीं है वो अपने घर चला जाता है… 

शिखर पर सिर्फ भय बचता है.

खुशकिस्मत होते हैं, वे लोग जिंदगी जिनकी सहयोगी होती है। ज्यादातर जीवन प्रतिस्पर्धी ही होता है, औऱ कभी-कभी तो वो दुश्मन भी हो जाता है। 
अक्सर भावनात्मक उद्वेलन की नींव में गहरी संवेदनशीलता पसरी रहती है… 
खनकते दिनों और झनझनाती रातों, महकती सुबहों और नशीली शामों की ऋतु ….रस, सृजन, आनंद और उल्लास की ऋतु वसंत का स्वागत है..

सोचें यदि हमारी जिंदगियाँ इंटरनेट कनेक्शन सहित कंप्यूटर होती… 🙂
जरा कल्पना के घोड़े दौड़ाएँ और बताएँ कि फिर हमें उससे क्या करने/कर पाने की सहूलियतें होतीं?

जिसकी नाप संभव नहीं है, दुनिया में बस वही चीजें ‘निरपेक्ष’ हैं और ये हैं अहसास… 🙂
जिंदगी सुख-दुख के दो किनारों के बीच बहती रहती है…. 
दिमाग भ्रम पालता है, लेकिन जब टूटते हैं दिल को तकलीफ होती है… ऐसा क्यों?
लगता है दुनियादारी की चक्री में चुंबक लगा है, कितना ही बचो ये हमें खींचकर अपना हिस्सा बना ही लेती है… 

ऐसा लग रहा है कि हम दर्शक हैं औऱ दुनिया फास्ट फॉरवर्ड होती फिल्म… :-c
कोई भी इंसान हर भूमिका में एक ही जैसा अच्छा या बुरा नहीं हो पाता है। उसकी अच्छाई और बुराई का अनुपात हर भूमिका में बदलता है…. तो फिर…! फिर ये कि कोई भी पूरी तरह से अच्छा या बुरा नहीं होता… 😉 नहीं क्या…?
तीखी सर्दी वाली सुबह…. गुनगुना लिहाफ, कुछ भूली-बिसरी गज़लें, दर्द के गुजर जाने के बाद का मीठा-सा नशा और दिनभर को सोते जागते निकाल लेने की विलासिता…. सुख यूँ भी दर्द के साथ जुगलबंदी करता नजर आता है… enjoying VIRAL…:-D

हर महानता के पीछे क्षुद्रता होती है, राम की महानता का सच सीता का परित्याग, कृष्ण का राधा और रूक्मिणी, सिद्धार्थ का सच यशोधरा और गाँधी की महानता का सच कस्तूर के पास था… 🙁
सुविधा और विलासिता भोगने के बाद दो ही विकल्प बचते हैं – आध्यात्मिकता या फिर विकृति :-
ज्यादातर साधन संपन्नता छोटे-बड़े समझौतों की नींव पर ही आकार लेती है..
ख्वाब भटकते रहे रात भर
आँखें करती रही इंतजार… 

अजीब सिलवट भरे, अजनबी और नासाज़ से दिन हैं… क्या करें, इनका…? 

नियम-कायदे और अनुशासन हर व्यवस्था के वो हथियार है, जिनसे इंसान की मौलिक और सृजनात्मक करने की क्षमता को भोथरा किया जाता है, ताकि व्यवस्था से कुछ लोग हमेशा लाभांवित होते रहे… 

भावना का प्रवाह मूल्य और नैतिकता दोनों को बहाकर ले जाने की क्षमता रखता है। यही से शुरू होता पाप और अनैतिकता का सिलसिला, तो क्या भावना बुरी चीज है…?

संघर्ष की कुव्वत जन्मजात प्रतिभा नहीं होती, उसे तो रियाज से साधना पड़ता है… 🙂
लड़ने के लिए कौन पैदा होता है? हालात लड़ना सीखा देते हैं… 

क्या ‘आत्ममुग्धता’ भी लंबी जिंदगी के कारणों में से एक है…?

Is there any possibility to have BREAK from LIFE in LIFETIME….? 

क्या ‘बड़े’ होने की आवश्यक शर्त है ‘छोटा’ होना… ?

जो पाँच देश दुनिया में सबसे ज्यादा ईमानदार है, वे सभी आकार में छोटे हैं… तो निष्कर्ष यूँ कि आकार ही चरित्र का संकेतक है…! :-p
मंजिल का पता न हो तो राह लंबी नजर आने लगती है… 

जब तक किसी समाज के हरेक इंसान में आजादी को सहेजने की लियाक़त नहीं आती, तब तक ‘शासकों’ का वजूद रहेगा… और लगता है वो कभी आएगी ही नहीं… तो शासकों का होना तय है अनंत काल तक… 
कभी-कभी जीवन की सहज चीजों पर भी विश्वास नहीं होता… जैसे कि ‘प्यार…’ :-c

रात आती है तो लगता है कि क्यों आती है
दिन उगता है तो क्यों उगता है
दुनिया का दिखना क्यों हैं
और….
और मेरा होना क्या है…. ? :-
हर तरह के भ्रम जिंदगी को खूबसूरत बनाते हैं। जीवन से भ्रम निकाल देने पर जो बचेगा, वो भयावह होगा…
….. कभी-कभी क्यों खुद को ही दफ़न करने की तीखी इच्छा जागने लगती है… ? 
नैतिकता किसी भी युद्ध का शस्त्र नहीं हो सकती, क्योंकि मूलतः युद्ध ही अ-नैतिक क्रिया है, तो फिर धर्म-युद्ध एक छलावा और उसके योद्धा झूठ है… जबकि धर्मों के आधार ये तथाकथित धर्म-योद्धा रहे हैं, तो फिर क्या धर्मों का आधार ही अ-नैतिक है….
अपनी बेचैनी का सबब ढूँढते हुए चाँद पर नजर गई… और चाँद को दोषी पाया… 🙁
‘सेना’ मानवीय सभ्यता का सबसे अ-नैतिक और अ-मानवीय आविष्कार है
जिस क्षण ये अहसास लहराता है कि किसी भी क्षण शरीर की ये मशीन हमेशा के लिए रुक जाएगी, उसी क्षण से खुद सहित ये पूरी दुनिया पराई-सी लगने लगती है…:-
माँ बनती नहीं है, पैदा होती है…
मोह को समझना हो तो पुरानी किताबें निकाल कर देखो… 🙂
दिन की आँच, रात की राख
यूँ ही होती है जिंदगी खाक… :

जीवन में हरेक अपने-अपने अनुभवों से सीखता है। यदि हम दूसरों के अनुभवों से सीखते तो शायद गलतियों की गुंजाईश ही नहीं होती, लेकिन ऐसा होता नहीं है

‘बोनसाई’ व्यवस्था की रीढ़ होते हैं। प्यार, भावना, सुविधा, डर और जरूरतों जैसी और कई चीजें हैं जिनके नाम पर इंसान बोनसाई बनाए जाते हैं और व्यवस्था यथास्थिति बनाए रखती है। हर व्यवस्था के अपने ‘बोनसाई’ है… जो खुद को नायक सिद्ध करते रहते हैं… यही नियति है दुनिया की :

हमारा डर किसी की ताकत है और किसी का डर हमारी ताकत… व्यवस्था बस इसी तरह से रोटेट होती रहती है…:-)

क्या भटकाव भी असीम ऊर्जा का प्रतीक है….?
खुशी बाँटने से बढ़ती है और ग़म बाँटने से अपनी गरिमा खो देता है।… तो क्यों नहीं खुशी को फैलाए और ग़मों को समेट लें…. :-
मृत्यु बस एक पल है ‘होने’ और ‘न-होने’ के बीच का

दुख से सुलह कर लेना, उसे सह लेने का सबसे सरल रास्ता है :-

दुनिया को चलाने के लिए ‘टाइप्स’ की ही जरूरत है। यदि स्कूल-कॉलेजों से इंसान निकलने लगे तो इस व्यवस्था का क्या होगा, जहाँ हरेक की एक निश्चित भूमिका है, जरूरत है। तो चाहे बात आज की हो या कहीं सुदूर अतीत की… व्यवस्थाएँ तो सिर्फ ‘टाइप्स’ ही निकालेंगी… हमें ‘इंसान’ बनना है या ‘टाइप’ ही रहना है ये हमें तय करना है। अब आपकी बारी…! 🙂
प्रेम और न्याय साथ-साथ नहीं साधे जा सकते
दुख भविष्य और सुख वर्तमान है..।

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