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नवीन के स्वागत का पर्व गुड़ी पड़वा

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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पौराणिक ग्रंथों जैसे ब्रह्मपुराण, अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में ये माना गया है कि गुड़ीपड़वा पर ब्रह्मा ने सृष्टि के सृजन की शुरुआत की थी। यहीं से नवीन का प्रारंभ हुआ माना जाता है और नवीनता का उत्सव ही हम गुड़ीपड़वा के तौर पर मनाते हैं। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की पहली तारीख मतलब प्रतिपदा, पड़वा को गुड़ी पड़वा के तौर पर मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसी दिन से चैत्र नवरात्रि की शुरुआत होती है, जो रामनवमी तक चलती है। कहा जाता है कि महाभारत में युधिष्ठिर का राज्यारोहण इसी दिन हुआ था और इसी दिन विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया था। किसान इसे रबी के चक्र के अंत के तौर पर भी मनाते हैं।
इस दिन की शुरुआत सूर्य को अर्घ्य देने से की जाती है। गुड़-धनिया का प्रसाद वितरित किया जाता है। घरों की साफ-सफाई कर सुंदर रंगोली बनाई जाती है। महाराष्ट्र में और अब तो मालवा-निमाड़ में भी घर की खिड़कियों पर गुड़ी लगाने को विशेष तौर पर शुभ माना जाता है। गुड़ी ब्रह्मध्वज के प्रतीक के तौर पर लगाई जाती है। इसे राम की लंका विजय के तौर पर और महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी की विजय की ध्वजा के तौर पर लगाया जाता है। लंबी डंडी पर गहरे हरे या फिर पीले रंग की नई साड़ी लगाकर उस पर छोटा लोटा या फिर गिलास सजाया जाता है। उस पर काजल से आँख, नाक, मुँह बनाए जाते हैं और उसे फूल-हार से सजाकर उसकी पूजा की जाती है। घरों में श्रीखंड और पूरनपोळी बनाई जाती है। आरोग्य की दृष्टि से नीम की ताजी पत्तियों का सेवन किया जाता है। इस तरह नए साल की शुरुआत वसंत के उत्सव के साथ ही सुख, समृद्धि और आरोग्य के संकल्प के साथ की जाती है।
पतझड़ और वसंत साथ-साथ आते हैं। प्रकृति की इस व्यवस्था के गहरे संकेत-संदेश हैं। अवसान-आगमन, मिलना-बिछड़ना, पुराने का खत्म होना-नए का आना… चाहे ये हमें असंगत लगते हों, लेकिन हैं ये एक ही साथ…। एक ही सिक्के के दो पहलू, जीवन का सत् और सार दोनों ही… वसंत ऋतु का पहला हिस्सा पतझड़ का हुआ करता है… पेड़ों, झाड़ियों, बेलों और पौधों के पत्ते सूखते हैं, पीले होते हैं और फिर मुरझाकर झड़ जाते हैं। उन्हीं सूखी, वीरान शाखाओं पर नाजुक कोमल कोंपले आनी शुरू हो जातीं हैं, यहीं से वसंत ऋतु अपने उत्सव के चरम पर पहुँचती है।
फागुन और चैत्र वंसत के उत्सव के महीने हैं। इसी चैत्र के मध्य में जब प्रकृति अपने शृंगार की… सृजन की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, गुलाबी, नारंगी, नीले, सफेद रंग के फूल खिलते हैं। पेड़ों पर नए पत्ते आते हैं और यूँ लगता है कि पूरी की पूरी सृष्टि ही नई हो गई है, ठीक इसी वक्त हमारी भौतिक दुनिया में भी नए का आगमन होता है। नए साल का … यही समय है नए के सृजन का, वंदन, पूजन और संकल्प का… जब सृष्टि नए का निर्माण करती है, आह्वान करती है, तब ही सांसारिक दुनिया भी नए की तरफ कदम बढ़ाती है। इस दृष्टि से गुड़ी पडवा के इस समय मनाए जाने के बहुत गहरे अर्थ है। पुराने के विदा होने और नए के स्वागत के संदेश देता ये पर्व है, प्रकृति का, सूरज का, जीवन, दर्शन और सृजन का। जीवन-चक्र का स्वीकरण, सम्मान और अभिनंदन और उत्सव है गुड़ी पड़वा। तो हम भी प्रकृति के इस उत्सव को मनाएँ… सूरज का अभिनंदन करें और गर्मियों का स्वागत करें, आखिर जीवन भी तो एक तरह का ऋतु-चक्र है… सुख-दुख, धूप-छाँह, सर्दी-गर्मी का… गुड़ीपड़वा पर आनंद-वर्षा हो… बस यही है शुभकामना…

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