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स्वागतम् ऋतुराज…!

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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तमाम दिमागी ख़लल, भौतिक व्यस्तताओं और दुनियावी उलझनों के बीच भी हमारी चेतना का कोई हिस्सा अपने ‘होने’ को न सिर्फ बचाए रखता है, बल्कि गाहे-ब-गाहे हमें ये अहसास भी कराता रहता है कि वो न सिर्फ है, बल्कि उसके होने से हमारे अंदर भी कुछ उसी की तरह का कुछ ‘अनूठा’ जिंदा है, हम उतने मशीनी हुए नहीं है, जितना हमने अपने आप को मान लिया है। तो इस सबके बीच हमारी चेतना ने पकड़ ही लिया है कि बसंत आ पहुँचा है…। यूँ भी ऋतुएँ अपने आने के लिए केलैंडर की मोहताज नहीं होती है, हमारी इंद्रियाँ ही उनके आने को चिह्न लेती हैं, सर्दी, गर्मी और बारिश को तो… लेकिन जब बसंत आता है तो उसका आगमन मन तक पहुँचता है।
मौसम की चपेट में आए शरीर ने आखिरकार मन-मस्तिष्क को राहत का सामान मुहैया करा ही दिया… शरीर बीमार है तो जाहिर है सारी वैचारिकता, संवेदनाएँ और भावनात्मकताओं से भी निजात है। सिरहाने राग मारवा में संतुर बज रहा है औऱ हमने खिड़की के सारे पर्दे चढ़ाकर शरीर को दर्द में डूबने के लिए आजाद कर दिया है, ताकि दिल-दिमाग भी थोड़ी फुर्सत पा लें। सुबह से दोपहर हो चली है और संतुर के साथ खिड़की के शीशों पर बसंत की धूप लगातार संगत कर रही है… परेशान होकर लिहाफ हटाया और उस शरारती धूप को अंदर आने के लिए रास्ता क्या दिया, वो पूरे कमरे में पसर गई… फिर क्या था, हमने भी खुद को उसमें डूबने के लिए छोड़ दिया। यादों की रहगुजर उभर आई और फुर्सत का आलम देखकर मन नॉस्टेल्जिक हो उठा।
ये तब की बात है जब ऋतुराज बसंत का नाम और चेहरा अलग-अलग हुआ करते थे। जानते तो थे कि बसंत नाम की कोई ऋतु होती है, लेकिन कब आती है, ये नहीं जानते थे, दूसरी तरफ जब आती थी तो लगता था कि हो न हो ये दिन कुछ अलग है। मतलब पीले पत्तों का झरना, नई कोंपलों का आना, हवा की हल्की खुनक, शाम का खुलापन, दिन का फैलना ये सब महसूस तो होता था, लेकिन ये बहुत बाद में जाना कि ये ही तो ऋतुराज है। परीक्षा के दिन हुआ करते थे, किताबें के बीच घिरे हुए पता नहीं क्या-क्या महसूस हुआ करता था। एक तो किताबों का नशा दूसरा मौसम का…. नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिले… यूँ लगता था कि दिन का कुछ कर डालें… क्या? …
ये तो स्पष्ट नहीं था, लेकिन कुछ ऐसा कि दिन को तोड़-मरोड़ डालें या फिर कहीं छुपाकर ज़ेवरों की पेटी में रख दें… या फिर विद्या की पत्तियों या सूखे गुलाबों की तरह अपनी किताबों के पन्नों में रख दें… बस कुछ ऐसा करें कि ये दिन गुजरने नहीं पाएँ… यहीं रूक जाए, ठहर जाए हमें यूँ ही नशा देते रहें… यूँ ही मदहोश करते रहें…. ओ… बसंत….बसंत…बसंत… कितना खुशनुमा, कितना खूबसूरत, कितना नशीला…।
वो अब भी आया है… वो अब भी हमारे आसपास घट रहा है अब भी सूखे पत्ते वैसे ही झर रहे हैं, कोंपले वैसी ही फूट रही हैं, हवा में वैसा ही नशा है, शाम का खुलापन और दिन का फटना बदस्तूर है… उसी तरह से मदहोश करता, बहलाता, उकसाता, फुसलाता… लेकिन बस हम ही उससे अलग है, रूठे हुए, अलगाए हुए, उदासीन और निर्लिप्त… दुनियादार हुए पड़े हैं, बिना अहसास के, मशीन की तरह… जड़… लेकिन नहीं, उसका आना इतना नामालूम, इतना गैर-मामूली नहीं है कि हम उसे नजरअंदाज़ कर दें… तो …. इस ऋतु का स्वागत करें…. वसंत मनाएँ… ऋतुराज…

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