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करप्टोक्रेसी के खिलाफ डेमोक्रेसी का संघर्ष

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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पूरी दुनिया में बदलाव के लिए संघर्ष चल रहे हैं। मेनहट्टन से लेकर म्यानमार तक और काहिरा से लेकर लंदन तक…। हर जगह लोकतंत्र की ख्वाहिश है। चाहे न्यूयॉर्क के जुकोटी पार्क में चलने वाला ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन हो या फिर मिस्त्र के तहरीर चौक पर हुआ आंदोलन… सरकोजी और एंजेला मर्केल के बीच हुई वार्ता, यूरो संकट, अरब स्प्रिंग हो या फिर भारत में अण्णा का आंदोलन, दुनिया भर में चल रहा ऑक्युपाई आंदोलन हो या फिर रूस के चुनावों के बाद हो रहे प्रदर्शन। अरब देशों और रूस में लोकतंत्र की लड़ाइयाँ चल रही है तो जिन देशों में पारंपरिक अर्थों में ‘लोकतंत्र’ हैं वहाँ इसमें बदलाव के लिए आंदोलन। इस दृष्टि से हम अभूतपूर्व समय के गवाह हैं।
पूरी दुनिया में राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर लोकतंत्र सबसे निरापद व्यवस्था मानी जाती है। जहाँ कहीं व्यवस्था का ये रूप नहीं है, वहाँ समय-समय पर इसके लिए आंदोलन हुए और कुचले गए हैं और जहाँ कहीं ये हैं, वहाँ इसमें सुधार की माँग लगातार होती रहती है। जहाँ है वो व्यवस्थाएँ खुद के लोकतांत्रित होने को जोर-शोर से स्थापित करती है – जैसे भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो दूसरी तरफ जो व्यवस्थाएँ लोकतांत्रिक नहीं है वे भी खुद को इसी तरह से प्रचारित करने में लगी रहती है, चीन और पाकिस्तान इसके उदाहरण है।
सवाल ये है कि जहाँ लोकतंत्र है वहाँ क्यों इस तरह का संघर्ष, आंदोलन चल रहे हैं…? असल में पश्चिम और उसकी भेड़चाल के तौर पर कथित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में प्रचलित लोकतंत्र हकीकत में अब एक मरीचिका ही सिद्ध हुआ है। तभी तो ऑक्युपाई आंदोलन का एक महत्वपूर्ण नारा है इट्स टाइम फॉर डेमोक्रेसी नॉट कॉर्पोरेटोक्रेसी। ये वास्तविकता है अमेरिका की, लेकिन ग्लोबलाइज्ड दुनिया में जिस तरह से उपभोक्तावाद ने पैर पसारे हैं, उसी तरह से ये कॉर्पोरेटोक्रेसी भी उन व्यवस्थाओं में पैठ जमाने लगी है। और प्रकारांतर से देखें तो इस कॉर्पोरेटोक्रेसी का विलय होता है करप्टोक्रेसी में।
चाहे संसार में बहुत विविधता है, लेकिन अब तक पूरी दुनिया में लोकतंत्र का एक ही आदर्श रूप है, वो है पश्चिमी लोकतंत्र… मतलब लोकतंत्र का उदारवादी रूप। आज तक ये स्थापित सत्य था, कि लोकतंत्र का आदर्श सिर्फ और सिर्फ उदारवादी आर्थिक दुनिया में ही संभव हो सकता है, कारण स्पष्ट है, लोकतंत्र की मौलिक जरूरत है आजादी और वो हासिल होती है, सिर्फ उदारवादी व्यवस्था में… लेकिन शायद पहली बार लोकतंत्र के इस पश्चिमी रूप से मोहभंग की स्थिति पैदा हुई है और वो भी वहाँ, जो इसकी जन्मभूमि माना जाता है – पश्चिम में। अरब दुनिया हालाँकि अब भी लोकतंत्र के पारंपरिक रूप के लिए ही आंदोलनरत है, लेकिन पश्चिम में 25 साल से भी कम समय में इसके दुर्गुण उभर कर नजर आने लगे हैं।
पश्चिमी यूरोप और अमेरिका ने लगभग 50 सालों तक साम्यवाद के विरोध के नाम पर अपने लोकतंत्र को टिकाए रखा। 1990 के बाद लोकतंत्र का भ्रम बनाए रखने के लिए फ्रांसीस फुकियामा के एंड ऑफ हिस्ट्री तो कभी रिगनोमिक्स या सप्लाई-साइड-इकनॉमिक्स या फिर ट्रिकल डाउन थ्योरी का सहारा लिया गया। हालाँकि बाद में खुद फुकियामा रिटर्न ऑफ हिस्ट्री का विचार लेकर आए फिर भी पश्चिमी दुनिया विचारों और दर्शनों की जद से बाहर अपनी कथित समृद्धि का जश्न मनाने में ग़ाफ़िल थी। दुनिया भर में बाजार, उपभोक्ता और कच्चा माल ढूँढने के लिए संघर्ष-सहयोग की कवायदें चल रही थी कि अमेरिका सहित यूरोप में पिछले दो-तीन सालों से चल रही मंदी की बयार ने पश्चिम की समृद्धि के फुगावे की हवा निकाल दी।
अब तक के इतिहास में आंदोलन पश्चिम से शुरू होते थे और फिर पूरी दुनिया में फैलते थे, लेकिन ऑक्युपाई आंदोलन की प्रेरणा तो विशुद्ध रूप से अरब स्प्रिंग का ही नतीजा है। इस ऑक्युपाई आंदोलन के तहत प्रचलित, स्थापित और प्रतिष्ठित लोकतंत्र को कॉर्पोरेटोक्रेसी का नाम देकर खारिज कर दिया है। जैसा कि मार्क्स ने कहा था कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक समानता धोखा है, रूप परिवर्तित कर यही बात आक्युपाई आंदोलन में भी ध्वनित हो रही है। लड़ाई समाजवाद-पूँजीवाद की तरह नहीं है, संघर्ष है तो बस हक का… हक मारने का।
चाहे नेताविहीन ऑक्युपाई आंदोलन को विशेषज्ञ बहुत ज्यादा प्रभावी न मानें, लेकिन हकीकत ये है कि इस आंदोलन ने पूरी दुनिया के सामने उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का घिनौना चेहरा उजागर कर दिया है। इस आंदोलन ने ग्लोबलाइजेशन से आई कथित समृद्धि के सच का पर्दाफाश किया है, इसने ये बताया है कि असल में व्यवस्था का फायदा 1 प्रतिशत श्रेष्ठी वर्ग ही उठा रहा है और वो भी शेष 99 प्रतिशत लोगों के हक मारकर। अब जबकि अमेरिका सहित पश्चिम के देशो में लोगों ने लोकतंत्र के उस लोकप्रिय और स्थापित रूप को नकारना शुरू कर दिया है तो दुनिया भर में इस उदार लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न खड़े होने लगे हैं।
लगता है अब समय आ गया है कि लोकतंत्र की अवधारणा में बदलाव को स्वीकार किया जाए। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ अपने प्रतिनिधियों को चुनना, कहीं-कहीं शासन में या नीति निर्माण में भागीदारी करना और जो चाहें वो कह लेने की स्वतंत्रता भर नहीं है, बल्कि किसी राजनीतिक ईकाई के हरेक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अधिकार देना है औऱ यहीं आकर परंपरागत लोकतंत्र असफल होता नजर आ रहा है। ऐतिहासिक तौर पर लोकतंत्र का उद्भव यूनान में हुआ है, इसका विकास पश्चिम के विकसित देशों ने किया, लेकिन जैसे-जैसे इस व्यवस्था में पूँजीवादी अवयव जुड़ते चले गए, वैसे-वैसे इसका लोककल्याणकारी चेहरा विरूप होता चला गया और आज जिसे लोकतंत्र की तरह स्थापित किया गया है, वो पूरी तरह से पूँजीवादी आर्थिक तंत्र का पोषक होता चला गया, अमेरिका से चली लॉबिईंग ने अब दुनिया की हर उस व्यवस्था में अपने लिए जगह बना डाली है, जहाँ लोकतंत्र का उदारवादी रूप विकसित हो चला है। और यहीं से डेमोक्रेसी ने कॉर्पोरेटोक्रेसी और फिर करप्टोक्रेसी का रूप ग्रहण कर लिया। और देखिए कि एक ही समय में लगभग पूरी दुनिया में अलग-अलग तरह से इस करप्टोक्रेसी के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, आंदोलन किए जा रहे हैं। अब देखना ये है कि ये करप्टोक्रेसी कब और कैसे डेमोक्रेसी में तब्दील होती है!

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