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प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य… !

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें…!

पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था… डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत…। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है… इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना… कहीं कुछ छूट नहीं जाए…तथ्य… तथ्य… और तथ्य…। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ… रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा…। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की… और सब खत्म…।

उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली… आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते… जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह… ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’

ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें… और सोचें… क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें… कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें… क्षण को जिएँ… ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा… बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए… क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो…। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए… मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए… बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे…।

इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए…? इस पर विचार करना बाकी है…!

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