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ज़हन और दिल पर क़ाबिज बाज़ार

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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रात को कितनी ही जल्दी क्यों न करें सोते-सोते 11.30 हो ही जाती है, लिहाजा सुबह जब नींद खुलती है तो सूरज खिड़कियों पर दस्तक दे रहा होता है। कुमारजी श्याम बजा बाँसुरिया सुना रहे होते हैं और चाय के प्याले के साथ सुबह के अखबार हुआ करते हैं, जिनमें ज्यादातर निगेटिव खबरें होती हैं…। लगभग हर सुबह का यही क्रम हुआ करता है। और हर दिन की शुरुआत अखबारों में छपी खबरें और विज्ञापन देखते-देखते मन के उद्विग्न हो जाने से होती है। यूँ लगता है कि या तो दुनियाभर में बस सब कुछ गलत ही गलत हो रहा है या फिर लगता है कि हमारे आसपास बस अभाव ही अभाव है… सुबह पूरी तरह नकारात्मकता से पगी हुई, तो दिनभर का आलम क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
अच्छा खासा बड़ा, खुला, रोशन और हवादार घर है, लेकिन अखबार में छपने वाले फ्लैट के लुभावने विज्ञापन अहसास दिलाते हैं कि साहब आपके पास तो वॉकिंग जोन, स्विमिंग पुल, कम्युनिटी हॉल वाली टाउनशिप में कोई फ्लैट नहीं है औऱ यदि वो नहीं है तो फिर आपके जीवन में एक बड़ा अभाव है। स्लिमिंग सेंटर के विज्ञापनों में एक हड्डी की मॉडल देखकर लगता है कि कमर और पेट पर कितनी चर्बी चढ़ रही है और ब्यूटी पार्लरों के विज्ञापन चेहरे पर उम्र के निशान दिखाने लगते हैं किसी कॉस्मेटिक सर्जन के विज्ञापन पढ़कर चेहरे की सामान्य बनावट में कमी नजर आने लगती है और कभी लगता है कि यदि डिंपल होता तो शायद चेहरा खूबसूरत होता… किसी सेल का विज्ञापन घरेलू सामानों के अभाव को तो कपड़ों के विज्ञापन नए डिजाइन, पैटर्न आदि के कपड़ों का अभाव अलग तरह के मन को उदास करता है, टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, म्यूजिक सिस्टम, गाड़ी, एयरकंडीशनर, मोबाइल, लैपटॉप आदि यदि नए भी खऱीदे हो तो लगता है कि टेक्नॉलॉजी पुरानी हो गई है। तो चाहे घऱ के किसी भी कोने पर नजर डालों बस कमियाँ ही कमियाँ नजर आती हैं…। यूँ लगता है जैसे जीवन में कमियों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। कभी-कभी तो विज्ञापन ये भ्रम तक दे डालते हैं कि हो ना हो, हमें कोई-न-कोई बीमारी जरूर है। और ये सिलसिला रूकता ही नहीं, अखबार से शुरू होकर दफ्तर तक और दफ्तर से घर लौटकर रात को टीवी देखने तक ये बदस्तूर जारी रहता है।
घर से दफ्तर के बीच एक पूरा लंबा-चौड़ा बाजार पसरा हुआ है जिनमें सामानों की शक्ल में अलग-अलग आकार-प्रकार-रंग और पदार्थों के सपने टँगे होते हैं। आते-जाते ये सपने आँखों में उतर जाते और जिंदगी बस इन्हीं सपनों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती सी लगती है। चौराहे के सिग्नल पर जब गाड़ी खड़ी थी, तभी पास में मायक्रा आकर रूकी… कितनी खूबसूरत गाड़ी है…! एक ठंडी आह निकली। शो-रूम पर हर दिन आते-जाते मेजेंटा रंग की ड्रेस पर ध्यान अटकता और हर दिन वो सपना जमा होता चला जाता है, बल्कि हर दिन कोई नया सपना साथ आता है। इनमें से कई पूरे किए, लेकिन ये फेहरिस्त कम होने का नाम ही नहीं लेती। इंटरनेट पर सर्फ करो तो पेंशन प्लान से लेकर गर्ल फॉर डेंटिंग तक और डायमंड ज्लैवरी से लेकर निवेश के विकल्पों को सुझाने वाले विज्ञापन… टीवी पर डिटर्जेंट से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक और टीवी से लेकर बैंकिंग तक हर चीज का विज्ञापन शाम का समय खा जाता है… गोया बस हर जगह बाजार लगा हुआ है, खरीदो-बेचो… खरीदो-बेचो…।
कभी-कभी तो अपना आप भी बाजार का ही हिस्सा लगने लगता है। आखिर तो किसी भी वक्त खुद को बाजार से बाहर निकाल पाने की मोहलत ही नहीं मिलती है। हर वक्त कोई न कोई जरूरत की चीज याद आती है, कोई न कोई कमी, कोई न कोई सपना… क्या हम उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिनिधि उदाहरण हैं? कभी-कभी तो लगता है कि सोते-जागते, हँसते-गाते, खाते-पढ़ते… पूरे समय दिमाग पर बाजार ही हावी रहता है। हो भी क्यों न…! यदि हम घर पर भी रहे तो अखबार, टीवी और इंटरनेट हर जगह बाजार पसरा मिलता है। लगता है कि एक पल को भी बाजार से मुक्ति नहीं है। देखते ही देखते बाजार न सिर्फ हमारे घरों तक आ पहुँचा है, बल्कि इसने हमारे उपर कब्जा कर लिया। अब बस खऱीदने और पुरानी चीजों को निकालने के अतिरिक्त और कोई विचार होता ही नहीं है, लगता है कि बस खऱीदो-बेचो, खऱीदो-बेचो यही है जीवन का ध्येय…।
दिसंबर मध्य में जब सर्दी ने अपनी आमद दर्ज करवा दी है। रात में हल्की धुँध-सी महसूस होती है और रजाई की गर्माहट शिराओं को और मेहंदी हसन की किसी अँधेरी खोह से आती आवाज में – मेरी आहों में असर है कि नहीं, देख तो लूँ… के तल दिमाग के तंतु जब शिथिल होने लगे, तब एक होशमंद विचार कौंधा कि बाजार असल में होश पर ही नहीं, बल्कि जहन और दिल तक पर काबिज़ हो गया है तभी एक सवाल उठा तो क्या बाजार से मुक्ति नहीं हैं?
जवाब मेरे पास नहीं है, क्या आपके पास है!

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