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बैठो! कहीं जाना नहीं है…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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मन और मौसम दोनों की ही गिरह उलझी पड़ी है। दोनों की ही तरफ से कोई राहत नहीं….मन मौसम की तरह ही तप्त हो रहा है और मौसम है कि अपनी गाँठ खोलने के लिए ही तैयार नहीं है। ठहरना चाहना समय की रफ्तार में बहने लगा है…। हम पहले समय के साथ कदम मिलाने की और फिर उसे पकड़ने की एक बेकार सी कोशिश में लगे हुए हैं। कहाँ जाना है..क्या पाना है और क्यों पाना है जैसे सवाल कभी-कभी ही सिर उठाते हैं…. फिर डूब जाते है जद्दोजहद में….। कभी घड़ी-दो-घड़ी खुद के साथ बैठे तब सवाल आकर इर्द-गिर्द डेरा डाल देते हैं…..लेकिन उन्हें सहलाने-दुलराने जितनी भी इतनी राहत नहीं है… घड़ी को थामने की बेतुकी सी कोशिश में ही दिन पर दिन गुजर जाते हैं। कभी-कभी ही खुद के पास आकर बैठ पाते हैं। एक अंतहीन और अर्थहीन दौड़…. उसका हिस्सा…. कभी खुद तो कभी मजबूरन… सार्त्र के शब्दों में हम पैदा होने के लिए अभिशप्त है… उसी तरह हम दौड़ का हिस्सा होने के लिए भी अभिशप्त हैं… कितना अजीब है कि हम जानते हैं, फिर भी दौड़ते रहते हैं एक अंतहीन और लक्ष्यहीन दौड़…।
उन पर सुखद आश्चर्य होता है, जो जीवन को नशे की तरह खींचते चले जाते हैं…जीवन भर दौड़ते रहते हैं और कभी थकते नहीं कभी रूकते नहीं और कभी खुद से पूछते भी नहीं कि क्यों दौड़ रहे हैं, क्या पा लेंगे… पा कर क्या होगा? यही वे लोग है जो दुनिया को बदलते है…विकास करते हैं और समाज को बेहतर बनाते हैं….यहाँ तो बड़ी से बड़ी सफलता का नशा भी दो दिन में उतर जाता है और फिर खुलने लगती है अर्थहीनता की पोटली….ये दौड़ क्यों है…कहाँ जाना है….क्यों जाना है और पहुँच कर क्या मिलेगा?….अंतहीन सवाल और कोई जवाब नहीं..। उनसे ईर्ष्या होती है.. जो इस दौड़ से अलग होकर किनारे बैठे हैं दौड़ने वालों निर्विकार भाव से देख रहे है गोया कह रहे हो कि रूक जाओ कोई कहीं नहीं पहुँचेगा…. बेकार है यूँ दौड़ना। ऐसे में ही ओशो का कहा अक्सर मजबूर करता है रूकने और बैठ जाने के लिए कि— बैठो! कहीं जाना नहीं है। जो चला वो भटक गया, जो बैठा वह पहुँच गया।
ये उसने कहा है जिसने दुनिया देखी है…..जो भटकने के बाद ही इस सत्य तक पहुँचा है…हम भी शायद पहले भटकेंगे और फिर कहीं बैठ जाएँगें….तब तक तो भटकने के लिए अभिशप्त हैं।

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