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माँ एक रसायन है

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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माँ से हमारा रिश्ता सबसे पुराना होता है, खून का….इसलिए उसे तो हमें प्यार करना हुआ ही….. कुछ ऐसे रिश्ते भी होते हैं, जो माँ की तरह खून से तो नहीं बँधे होते हैं, लेकिन उनके होना, हमारे जीवन की नींव में होता है, और वो इतना पुख्ता होता है, कि उसका अहसास हमें जीवन के हर मोड़ पर होता रहता है…. वो माँ नहीं होती, लेकिन उससे कम भी नहीं होती…. फिर हरेक के जीवन में ऐसे रिश्ते नहीं होते हैं, ये बहुत रेयर है….. मैं खुशनसीब हूँ कि मेरे पास ऐसा रिश्ता है… आदरांजलि के साथ आप सबसे शेयर कर रही हूँ।
गर्मियों की शाम थी…. वे जल्दी-जल्दी मुझे तैयार कर रही थीं…. पता नहीं कब से दोनों ने मुझसे जुड़े हुए कामों को आपस में बाँट लिया था…. या फिर ये यूँ ही बस होता चला गया था। बालों में तेल लगाना, उन्हें रीठा-शिकाकाई से धोना बा (ताईजी, यूँ गुजराती में माँ के लिए बा शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन हम भाई-बहन ताईजी को बा कहते हैं, क्योंकि भइया, (ताईजी का बेटा) उन्हें बा कहता है, इसलिए हम भी उन्हें बा कहने लगे) के जिम्मे था और उन्हें सुलझाना, बाँधना और जुएँ निकालना माँ के हिस्से।
दरअसल मेरे लंबे खूबसूरत बालों को लेकर बा और पप्पा (ताऊजी) दोनों ही अतिरिक्त रूप से सतर्क थे। और वे उसके लिए वे सारे खटकर्म करते थे, जो उन्हें कोई भी सुझा देता था। हाँ तो बा मुझे डांस क्लास ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी और मैं खेलने में मगन थी। पता नहीं माँ जल्दी-जल्दी कर सुलझा रही थी इसलिए या फिर मुझे दुख रहा था, इसलिए मैं जोर सी चीखी थी… आप बाल खींच रही हैं।
माँ ने सिर पर तड़ाक से चपत लगाई थी…. तू सीधी नहीं बैठ रही है, कैसे सुलझाऊँ…. बा का गोरा चेहरा तमतमा आया था। गुस्सा वे करती नहीं हैं, फिर भी खीझकर बोली थी, उसे दुख रहा है, तू छोड़ मैं कर देती हूँ। माँ गुस्सा होकर वहाँ से चली गई थी। अपने राम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। ना तो माँ एक से ज्यादा आम खाने को देगी, ना आम आते ही उन्हें हाथ लगाने देंगी, रात को खिचड़ी खानी होगी तो भी माँ तो बनाकर देने से रही….. कलाकंद भी तो बा ही मँगवा कर खिलाएगी तो फिर माँ के गुस्सा होने से फर्क क्या पड़ता है…. होती रहे गुस्सा….।
उनके साथ मेरा बचपन भरा-भरा था, मैं बा के साथ ही रहती, कहीं जाना हो तो बा के साथ, बा मायके जाए या फिर बहन के घर शादी में मैं साथ ही टँगी रहती थी। शायद ही कभी किसी ने बा को मेरे बिना देखा हो। माँ के साथ आना-जाना मुझे ज्यादा सुहाता नहीं था। माँ बहुत अनुशासित हैं और बहुत टोका-टोकी करती हैं… और बा…. बा के साथ तो बिंदास रहा जा सकता है। इसलिए जब माँ मायके जाती तो हम दोनों भाई-बहनों की कोशिश हुआ करती थी कि हम ना जाएँ और हाँ बा की भी…. हमारे न जाने के पीछे के कारण स्पष्ट थे, यदि आधी रात को भी हलवा खाने की फरमाईश की तो बा ही पूरी करेगी…. माँ तो डाँट-पीटकर सुला ही दें….।
शायद उसी समय का वाकया है…. बैसाख के अंतिम दिन थे, परीक्षाएँ खत्म हो चुकी थी। माँ मायके जाने की तैयारी कर रही थी, वे चाहती थीं कि हम दोनों भी उनके साथ जाएँ…. कारण स्पष्ट था, सभी बहनें अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आएगी…. आखिर नाना-नानी को भी तो हमारा इंतजार होता था, फिर शायद एक वजह यह भी रही होगी कि वहाँ हम दोनों बहुत सयाने माने जाते थे, कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं, कोई जिद नहीं… जाहिर है वहाँ हमारी तारीफ हुआ करती थी…. हो सकता है माँ को यह अच्छा लगता हो…. यूँ माँ ने हमारी तारीफ कभी नहीं की…. शायद यहाँ भी दोनों ने कोई समझौता किया हो कि अनुशासन माँ देगी और प्यार बा करेगी।
मुझे ननिहाल जाना पसंद नहीं था, बात यह है कि बा की वजह से हम दोनों भाई-बहन बहुत चटोरे हो गए थे। हर दिन सामान्य खाना हमारे बस की बात नहीं थी…. और चूँकि नानी हमारी माँ की भी माँ हैं, इसलिए अनुशासन में वे माँ से भी एक कदम आगे थी….इसलिए उनका फरमान रहता थी कि घर में जो कुछ बना है, सभी वही खाएँगे…. जब खाने की थाली पर बैठकर हम भाई-बहन नाक-भौं सिकोड़ते थे तो नानी हमारी माँ से कहतीं थी – तेरी जेठानी ने तेरे बच्चों को बहुत बिगाड़ दिया है, सिर्फ अच्छा खाने को चाहिए…। तब तो यूँ लगता था कि नानी बा की बुराई कर रही है, आज समझ में आता है, कि नहीं वो उनकी तारीफ थी।
हाँ तो माँ जाने के लिए अंदर के कमरे में सूटकेस जमा रही थी और बा बहुत बेचैनी से अंदर-बाहर-अंदर-बाहर कर रही थीं। कभी कोई दवा लेकर आतीं और माँ को रखने के लिए देती तो कभी ग्लूकोज देती, तो कभी हिदायतें….बहुत देर तक माँ अपनी झुँझलाहट छिपाने की कोशिश करती रहीं, फिर रहा नहीं गया तो कह दिया – आपके बच्चों को आपके पास ही छोड़ जाती हूँ।
बा थोड़ी खिसिया गईं…. नहीं बेटा गुस्सा मत कर… बच्चे वहाँ जाकर बीमार हो जाते हैं ना! बस इसीलिए थोड़ी चिंता होती है।
माँ मीठे-से मुस्कुरा दी – मैं ध्यान रखूँगी, आप चिंता न करें।
लेकिन फिर ऐन मौके पर पता नहीं कहाँ क्या गड़बड़ा जाता कि मैं माँ के साथ जाने से इंकार कर देती….. क्योंकि यहाँ जितनी स्वतंत्रता मिलती है, और जितना स्पेशल ट्रीटमेंट मिलता है, वह ननिहाल में मिलने से रहा।
जाने वाले दिन सामान आँगन में रखकर ऑटो का इंतजार हो रहा होता है, तभी बा आकर माँ की गोद भरती है। ऑटो आकर घर के सामने खड़ा हुआ है…. इधर दोनों एक-दूसरे के गले मिलकर सुबकने लगती है। मुझे बड़ी हैरत होती है, माँ तो अपनी माँ से मिलने जा रही है तो फिर वो क्यों रो रही है? और बा को क्या हो गया है? लेकिन दोनों को रोता देखकर मैं भी बुक्का फाड़कर रोने लगती हूँ तो बा मुझे गले लगा लेती है। ये सीन साल-दर-साल गर्मियों में दोहराया जाता रहा है।
पता नहीं ऐसा डांस की प्रैक्टिस करने से होता है, या फिर ये विरासत में मिला है…. रात में पैर बहुत दर्द करते थे… आधी रात को उठकर बैठ जाती और बुक्का फाड़कर रोने लगती…. बा घबराकर उठती ( माँ बताती हैं कि जब मैं तीन महीने की थी, तभी से बा के साथ सोने लगी थी।)। सिर पर प्यार से हाथ फेरती, क्या हुआ बेटा….?
पाँव बहुत दुख रहे हैं….- मैं कहती
वे बहुत देर तक दबाती रहती, नींद लगती और फिर जाग कर रोने लगती…. फिर वे केरोसीन लाकर लगाने लगती तो पलंग पर सोया हुआ भईया ( बा का बेटा) उसकी गंध से जाग जाता और कहता – सारे बिस्तरों में केरोसीन की गंध भर जाएगी।
बा को गुस्सा आ जाता… तू चुपचाप सो तो, घासलेट की गंध अभी उड़ती है, फिर छोरी के पाँव दुख रहे हैं और तुझे गंध की पड़ी है।
शायद बहुत बचपन की बात है…. कोई विशेष अवसर था, इसलिए फइयों (बुआओं) के परिवार को खाने पर बुलाया था। बाल धोने की बारी थी और बा मुझे नहला रही थी। खूब देर तक सिर को रगड़ा फिर साबुन से गर्दन रगड़ने लगी और कहा – देख गर्दन कितनी काली कर रखी है। ठीक से नहाती भी नहीं है।
फई बहुत देर तक मुझे यूँ नहलाते देख शायद ऊब गईं थी… वे बोल पड़ी – भाभी कितना ही रगड़ो यह तो काली ही रहेगी।
मैं रूआँसी हो गईं थी… और बा चिढ़ गईं थी। आपको ऐसा कहना शोभा नहीं देता – जाने कैसे वे कह गईं थीं, जबकि मैंने उन्हें कभी किसी को जवाब देते नहीं देखा था। फई को खिसियाते देखा था मैंने।
मेरी शादी के बाद की घटना थी… किसी शादी से लौटी थी, इसलिए साड़ी पहनी थी और तैयार भी हुई थी…. हमेशा की तरह भाई से किसी बौद्धिक बहस में उलझी हुईं थी और मेरा ध्यान नहीं था कि वे बहुत देर से मुझे देख रही थी। फिर बहुत सकुचाते हुए कहती हैं – तू तो हीरोइन की तरह लग रही है।
उनके पास तारीफ करने का इससे बेहतर और कोई तरीका जो नहीं था। बरसों बरस अपने रंग को लेकर ताने सहती और डिप्रेशन में रहती एक लड़की से एक गोरी-चिट्टी और खूबसूरत महिला ऐसा कहे जो उसकी माँ भी नहीं है तो फिर मानना पड़ेगा कि ऐसा सिर्फ माँ ही कह सकती है, …. सिर्फ और सिर्फ माँ।
बा के रूप में मैंने स्त्री के आदर्श रूप को जाना है। जाना है कि माँ होने के लिए बच्चे तो जन्म देना जरूरी नहीं है…. ये रसायन है, फिर वे तो माँ भी हैं…. मैंने अपने जीवन में उन्हें कभी माँ के अतिरिक्त किसी और भूमिका में नहीं देखा…. बहुत सारे रिश्ते उनके आसपास हैं, फिर भी हर रिश्तों में जो सबसे ज्यादा उभरकर आता है, वह उनका माँ होना….. वे पत्नी हैं, बहन, भाभी, सास, जेठानी और अब तो दादी भी…. लेकिन फिर भी उनका माँ वाला रूप उन सबसे उपर है, वह हमेशा हर रिश्ते में माँ हो जाती हैं। शायद इसीलिए वे हर रिश्ते को प्यार और मीठी-सी सुवास से भर देती है। अपने बच्चों को सभी माएँ प्यार करती हैं, लेकिन यदि दुसरों के बच्चों को प्यार कर पाए तभी औरत वहाँ पहुँच पाती है, जहाँ वो सचमुच माँ हो पाती है। मेरी बा ऐसी ही है….। स्मृति तो इतनी है कि एक उपन्यास भी कम हो…. लेकिन क्या प्यार की कोई माप हो सकती है? क्या शब्द वो सब कह पाते हैं, जो हम सचमुच कहना चाहते हैं? नहीं… शब्द महज शब्द हैं…..लेकिन अहसासों को कहने के लिए हमें इनका ही सहारा लेना पड़ता है…. फिर किसी को यह कहने के लिए कि उसका होना हमारे जीवन की नींव से है, शब्द ही सहारा होते हैं….इसीलिए… इतने सारे बहाए हैं…. पता नहीं कितना कह पाई हूँ….?

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