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सौंदर्य निरापद नहीं होता

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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गतांक से आगे…
कुनमुनाते हुए जब बाहर निकले तो सूरज हल्के-हल्के मुस्कुरा रहा था। मॉल रोड पर टोनी के चाय के स्टॉल पर पहुँचे तो नजारा ही दूसरा था। बदले मौसम का असर नजर आ रहा था। पर्यटक तो कम थे लेकिन स्थानीय लोग झुंड के झुंड बनाकर सूरज का स्वागत करते नजर आ रहे थे… लगा कि इस मौसम में यहाँ के लोग सूरज के निकलने को जरूर उत्सव की तरह मनाते होंगे। जहाँ से गाड़ियाँ आती-जाती हैं, वहाँ से तो बर्फ साफ की जा चुकी थी, लेकिन मनाली मॉल रोड पर वाहनों पर प्रतिबंध है, इसलिए यहाँ तो लोगों से चलने से बर्फ जम चुकी थी, जहाँ से ज्यादा आवाजाही थी, वहाँ बर्फ थो़ड़ी पिघलने भी लगी थी। याक मॉल रोड पर आ चुके थे और पर्यटक उन पर बैठकर फोटो खिंचवा रहे थे। हर तरफ रौनक नजर आ रही थी। उष्मा की रौनक…
खाने के बाद मीठी से नींद लेकर जब शाम की चाय के लिए बाहर आए, तो हल्की फुहारें शुरू हो चुकी थी। गर्म चाय का गिलास हाथ में लेकर आसमान की तरफ नजरें उठाई थी, ये जानने के लिए कि आज का इरादा क्या है कि बादलों की चिंदियाँ उतरती नजर आने लगी, छाता खोलकर मॉल रोड के अंतिम सिरे की तरफ बढ़ गए। धीरे-धीरे स्थानीय लोग और पर्यटक सभी गायब होने लगे… बादल अब कतरनों में बरसने लगे। छाते हटा दिए थे, सिर पर रूई की तरह ठहरने लगी थी बर्फ… हथेली में लेने का हौसला दिखाया तो, लेकिन ऊनी दस्तानों के अंदर जब पिघल कर उतरी तो सिहरन दौड़ने लगी… तुरंत हाथ खींच लिए। पागलपन यूँ कि कभी बर्फ समेटे तो कभी समय को थाम लेने की बेतुकी-सी हूक उठे… रंग-बिरंगी दुनिया पर सफेदी छाने लगी थी… धीरे-धीरे सब कुछ सफेद हो गया था, श्वेत, धवल, उज्जवल… तभी एक स्थानीय युवक ने पूछा – आपका फोटो ले सकता हूँ?
क्यों नहीं, लेकिन एक शर्त है, आपको भी हमारे फोटो खींचने पड़ेंगे।
जरूर…
फोटो खींचने के दौरान उसका साथी दुकानदार कश्मीरी युवक भी आ खड़ा हुआ, कहने लगा – तंग आ चुके हैं, पिछले बीस दिनों से रोज यही-यही हो रहा है। किसी एक दिन खूब बरस जाए और खत्म हो जाए… ऐसा तो नहीं… रोज-रोज बस यही।
अरे… कहाँ तो हम इसे ही थामने की नामुमकिन-सी इच्छा को दबा रहे हैं और ये तंग आ चुका है। तभी लगा कि सौंदर्य भी निरापद नहीं होता… ये भी तो आपदा है…।
जब तीसरा चक्कर लगाकर लौटे तो देखा कि वो दोनों युवक और उसके साथी खुले से मॉल रोड पर बर्फ से खेल रहे हैं और लगा कि मुश्किलों में भी जिंदगी बहकर आ ही जाती है। कोई भी क्षण स्थायी सच नहीं होता है, हर क्षण का सच बदलता है… अरे… फिर से वही। ठंड बढ़ने लगी थी, इसलिए अब लौटना तो था ही… खत्म होना भी तो सच है, चाहे जीवन हो, सफर हो या फिर आनंद…।
ये हम हमेशा करते हैं, कि जहाँ-जहाँ आसानी से चल कर जाया जा सके, वहाँ पैदल ही जाते हैं। कहीं भी पहुँचते ही वहाँ की ट्रेवल गाईड और नक्शा जरूर खरीदते हैं, ताकि उस जगह को थोड़ा ज्यादा जान और समझ सके। तो मॉल रोड से हिडिंबा मंदिर (अब वहाँ तो उसे हिडिंबा देवी मंदिर कहा जाता है, लेकिन हमारे लिए तो वो राक्षसी है ना…!) लगभग डेढ़ किमी दूर है और वहाँ बहुत आराम से पैदल चलकर जाया जा सकता है। बर्फ की सड़क थी और बर्फ के ही पेड़-पौधे…। क्लब हाउस जाने वाले रास्ते से बाँई ओर जाने वाली सड़क हिडिंबा देवी मंदिर की ओर जाती है। थोड़ी सीढ़ियाँ भी चढ़नी पड़ती है। मंदिर को देखकर अनायास मनोहर श्याम जोशी और शिवानी के उपन्यासों में वर्णित हिमाचल के मंदिरों की याद आ गई। बहुत ही साधारण मंदिर, लेकिन उसकी असाधारणता थी, सफेद बर्फ… हर तरफ बस बर्फ ही बर्फ…. टीन की छत वाले लीपे हुए फर्श पर एक तरफ हवन चल रहा था, स्थानीय लोग बड़ी श्रद्धा से अंदर जाकर आराधना कर रहे थे… लगा कि हम भारतीयों के अंदर आस्था किस कदर बहती है कि देवी आराधना के लिए उन्हें न तो दुर्गा की दरकार है, न सरस्वती या काली की, हिडिंबा भी चलेगी। खैर हमें तो लगा कि यहाँ आकर ही पूरा मनाली घुम लिया। देवदार के पेड़ों पर जमी बर्फ यूँ लग रही थी जैसे ये बर्फ के ही पेड़ हो… । वैसे पैदल 3 किमी चलना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन रबर के जूते पहन कर बर्फ में चलना खासा थकाने वाला साबित हुआ। दोपहर में खासी गहरी नींद आई… रात को जब पिघलती बर्फ पर चहलकदमी कर रहे थे, तब आसमान में पूरा चाँद दिखाई दिया… साफ आसमान पर चाँद यूँ लग रहा था जैसे ये भी बर्फ का ही हो…।
यहाँ आए तीन पूरे दिन बीत गए थे। अब घुमने में थोड़ी तेजी दिखानी होगी। अगले दिन मणिकर्ण पहुँच गए। कुल्लू… हुड़कचुल्लू (राजेश ने बाद में कुल्लू को देखकर ये कविता लिखी थी) से और 35 किमी दूर मणिकर्ण एक गुरुद्वारा है, लेकिन वहाँ जाने का सबब गंधक के चश्मे हैं। चावल की पोटली लेकर गंधक के पानी में थोड़ी देर रखी… बुलबुले उठाता उबलता प्राकृतिक पानी… धुआँ ही धुआँ… साथ ही पहाड़ों से उतरती पार्वती भी…।
जब गुरुद्वारे की तरफ बढ़े तो सीढ़ियाँ चढ़े तो एक बुजुर्ग सरदारजी ने पके चावल की पोटली देखकर अपनी दुकान से एक पोलीथिन दी राजेश को और ये कहकर गले लगा लिया – बड़ी दमदार पर्सनेलिटी है साहब आपकी…।
अंदर बहुत भीगा-भीगा-सा कुछ बह निकला। हम सौजन्यता वश उनकी दुकान का सामान देखने लगे। एक कड़ा पसंद आया तो उन्होंने सूखे प्रसाद का पाउच भी पकड़ा दिया। जब पैसे दिए तो उन्होंने बहुत अपराध से भरकर कहा – अरे मैंने तो आपसे भी दुकानदारी कर ली। आदतन आते इस विचार को हमने झटक दिया कि शायद ये उनकी दुकानदारी का स्टाइल होगा… मानसिक प्रदूषण से कितना और कैसे बचे?
लिजिए लगता है कि सारे ही पौराणिक पात्र यहाँ से रिश्ता रखते हैं। हिडिंबा की वजह से भीम तो खैर यहाँ आए ही होंगे… वहीं उपर ही घटोत्कच का भी मंदिर है। महाभारत का मसाला तो है ही रामायण का भी है। वशिष्ठ मंदिर में भी गंधक का चश्मा है, बताने वाले ने बताया कि यहाँ तो पानी में गंधक के क्रिस्टल भी नजर आते हैं, लेकिन वहाँ का फर्श इतना ठंडा था और जूते उतार कर जाने की बाध्यता में हम ये साहस नहीं दिखा सके। गए तो यहाँ ऑटो से लेकिन लौटे पैदल… ब्यास नदी के किनारे-किनारे हायवे से चलते हुए पहाड़ों और उन देवदारों पर जमी बर्फ को निहारते, अभिभूत होते थके-हारे लौटे, लेकिन आनंद लेकर…।
जब से आए हैं तब से ही ये सवाल रह-रहकर परेशान कर रहा था कि मनाली तो खैर बहुत खूबसूरत है, लेकिन इसके साथ कुल्लू क्यों जुड़ता है। जबकि हमारे टैक्सी ड्रायवर ने हमें बताया कि कुल्लू में तो बर्फबारी भी नहीं होती है। तो ये देखने के लिए कि आखिर कुल्लू में क्या है, बहस करते-करते पहुँच गए। कुल्लू पहुँचे तो 6 दिनों में पहली बार फ्रेश ब्लू कलर का आसमान देखा… शायद सूरज के साथ आसमान और निखर जाता हो। और तो कुछ वहाँ था नहीं, सिवा कल-कल करती ब्यास नदी के…।
क्रमशः

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