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छीजते हम…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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कुछ अटका हुआ है, कुछ छूटा तो कुछ भटका हुआ है। बहुत सारा कुछ भूला हुआ याद आता है और बहुत सारा याद रहता-सा भूल जाते हैं। कुछ रिश्ते जो अभी जिंदा हैं, धड़कते हैं और याद दिलाते हैं अपने जीवित होने की… कुछ जो दरक गए हैं, हमारे न चाहते हुए भी… उनकी किरचें बिखरी हुई है, यहीं कहीं… चुभती है, टीस देती है, दर्द देती है। नहीं चाहते थे कि कुछ भी टूटे, लेकिन जो अंदर बनता है वो बहुत नाज़ुक होता है, पता नहीं किससे उसे ठेस लग जाए… बहुत एहतियात बरता था, लेकिन बचा नहीं पाए… हम ही कहीं असफल रहे। गहरे पैठे थे वो अंदर कहीं, हम भी नहीं जानते थे कि कितने अंदर तक जा धँसे हैं, लेकिन जब उखड़े तो जैसे तूफान ही आ गया। कितना कुछ बिखरा और तिनके-सा उड़ गया, हमें होश ही नहीं रहा, जब होश आया तो मोटा-मोटी नुकसान तक ही पहुँच पाए, हालाँकि ये बाद में पता चला कि नुकसान इतना ज्यादा था कि उस तूफान को आए अर्सा बीत गया, लेकिन वो नुकसान पर्त-दर-पर्त खुलकर अब तक दिखता रहता है।
अपनी जिद्द और टूटन को संभालते हुए पता नहीं कहाँ क्या खो दिया, अब तक समझ नहीं पाए हैं, जब कभी कच्ची जमीन पर रखा हुआ पैर धसकता है तो याद आता है कि ये भी उसके साथ छिटका है, टूटा है। बहुत नाजुक-सा कुछ बहुत बुरी तरह से विक्षत हुआ है, क्या गलत हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और जो हुआ उसे रोका क्यों नहीं? अब कुछ नहीं हो सकता है, वो टूट चुका है। वो प्रेम का धागा था चटक गया, जोड़ा तो हैं, जतन से लेकिन गाँठ है, उभरी हुई, चुभती हुई।
हम कहाँ-कहाँ से जुड़े, बिखरे, फैले और बनते हैं इस पहेली को आज तक नहीं सुलझा पाए हैं, हमारा होना बस हमारा होना ही तो नहीं हैं ना…! हमारे होने में न जाने कहाँ-कहाँ से क्या-क्या जुड़ता है। दरकने से पहले बने रिश्तों से लेकर दरके हुए रिश्तों तक…। हमारी मिट्टी के उर्वर होने के लिए कहाँ-कहाँ से किस-किस का दाय मिला है, हम तो जानते ही नहीं, इस अहंकार में जीते हैं कि हम खुद के बनाए हुए हैं, लेकिन क्या वाकई…?
जब कहीं अंदर कुछ कड़ा मिलता है तो चौंकते हैं, – ये हमारा तो नहीं, लेकिन अंदर है तो हमारा ही होगा। बना हुआ नहीं होगा तो बनता रहा होगा!
पूछते हैं खुद से ही कि कभी मुलायम मखमल रही इस जमीन में ये सख्त पत्थर कहाँ से आ गए? कैसे हो गया इतना सख्त और क्या हो गया इतना कड़ा, हमें पता क्यों नहीं चला? ये उसी नुकसान के अवशेष हैं, जो कभी हुआ था।
जिद्द अब भी है, लेकिन हमारे अंदर ही कुछ ऐसा है जो हमसे भी ज्यादा जिद्दी है। हमारे जिद्द के पत्थर में कहीं दरार ढूँढ कर अंदर बहने लगी है वो जिद्द की रोशनी और हम रोक नहीं पा रहे हैं। वो दिखा रही है – देखो कहाँ-कहाँ से छीजे हो, कितने उथले हुए हो, कितना कम हुए हो, कितना छोटे हुए हो?

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