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ये इश्क-इश्क है, इश्क-इश्क… बस…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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पहले कव्वाली सुनें और फिर ब्लॉग पढ़ें या फिर पहले ब्लॉग पढ़े और फिर कव्वाली सुने ये आप पर निर्भर हैं। बस अपने-अपने अनुभवों को मुझसे जरूर बाँटिए… इस उम्मीद के साथ। इस बार कहानी, आलेख से अलग कुछ

हमारी परम्परा में नाद ब्रह्म है और जब उसके साथ दर्शन हो तो बनता है वह अलौकिक होगा….उसकी अनुभूति शब्दों से परे होगी….गूंगे के गुड की तरह….यहाँ हम एक फिल्मी क़व्वाली की चर्चा कर रहें हैं….सुर-ताल के साथ शब्दों की संगत से जो बेहतर बनता है. वह सब बरसात की रात की क़व्वाली ‘ना तो कारवां की तलाश है, ना तो हमसफ़र की तलाश है’ में मिल जाएगा…. इसे आत्मस्थ होकर सुनने से जो अहसास होता है वह भी अलौकिक…..शायद स्वर्गिक या शायद….शब्द नहीं है….चुक गए है…इसे दर्शन में संप्रेषण की समस्या कहते है…पश्चिम में खासकर कार्ल जेस्पेर्स अनुभूतिगत आदान-प्रदान को मानव होने की खास जरुरत मानते है, लेकिन इसकी सीमाओं से हम इंकार नहीं कर सकते है…फिर जिस तीव्रता, स्तर और मात्रा में मुझे कोई अहसास हुआ है, उसका मापदंड क्या है? अहसास तो व्यक्ति-दर-व्यक्ति अलग होता जाता है, खैर फिलहाल दर्शन नहीं संगीत और अध्यात्मिक अनुभूति की बात हो रही है. मन्ना डे के आलाप के साथ शुरू हुई इस क़व्वाली में सिर्फ़ आराधक और आराध्य ही है, या दुनियावी और श्रृंगारिक दृष्टि से आशिक और माशूक….लेकिन जैसे-जैसे यह आगे बढती है आशिक और माशूक कहीं गुम हो जाते है, फिर जो बचता है वह सिर्फ़ और ब्रह्म और पिंड होता है…संसारिकता कहीं गुम हो जाती है और रूहानियत का जन्म होता है, रेडियो के ज़माने में ‘ना तो कारवां की तलाश है’ और ‘ये इश्क इश्क है इश्क इश्क’ दो अलग-अलग कम्पोजीशन के तौर पर सुनी और पहचानी थी…क्योंकि इसकी लम्बाई औसत गानों से ज्यादा है और इस माध्यम की अपनी सीमाएं….तो ना तो कारवां की तलाश है ना तो हमसफ़र की तलाश है…..फिर मंजिल तो साफ़ है, एकांतिकता की दरकार है….मेरे शौके खाना ख़राब को तेरी रहगुजर की तलाश है….रास्ते की तलाश है और वो भी अकले…..अकले होने का कोई गम नहीं, बल्कि चाहत है….वो तो सिर्फ़ प्रेम में ही सम्भव है, आखिर कबीर ने भी तो है की प्रेम गली अति साकरी या में दो ना समाही, जब में था तब हरि नाही, अब हरि है मैं नाहीं…जिस रास्ते से मैं भी नहीं गुजर सकता, उसमे कोई और कैसे साथ चल सकता है?फिर आशा का मद्धम आलाप से प्रवेश करना…मेरे नामुराद जूनून का है इलाज कोई तो मौत है….किसी भी तरह के इस दुःख से निजात की ख्वाहिश…तेरा इश्क है मेरी आरजू, तेरा इश्क है मेरी आबरू….तेरा इश्क में कैसे छोड़ दूँ मेरी उम्र भर की तलाश है….यहाँ तक तो पकी उम्र में ही पहुँचा जा सकता है, क्योंकि इस जूनून तक….दिल इश्क, जिस्म इश्क और जान इश्क है, ईमान की जो पूछो तो ईमान इश्क है…. तो फिर बचा क्या?यहाँ तक तो सब कुछ चलता है, लेकिन जैसे ही क़व्वाली का दूसरा हिस्सा ‘ये इश्क इश्क है इश्क इश्क है’ शुरू होता है सुफीत्व का आविर्भाव होता है और हम एक सर्वथा नई भावभूमि पर आ खड़े होते है….यहाँ कुछ भी नहीं होता ‘नथिंगनेस’ भी नहीं क्योंकि इसका अस्तित्व भी ‘थिंग’ होने के बाद की अवस्था है….यहाँ अतीत के बाद का वर्तमान है…यहाँ न काल है न काल का अहसास……सिर्फ़ नाद है….और है ब्रह्म की अनुभूति …जमाना नहीं और अहसासे जमाना तक नहीं, यहाँ तो शमन होने लगता है कबीर वाले ‘मैं’ का, जो धीरे-धीरे गल रहा है…पिघल रहा है…..सहर तक सबका है अंजाम जल कर खाक हो जाना…. एक और सच मृत्यु…चाहे कोई भी हो इससे निजात नहीं है. क़व्वाली में इश्क के फलसफे के गिरह खुलने लगती है….इश्क आजाद है…..हिंदू ना मुसलमान है इश्क….आप की धर्म है और आप ही ईमान है इश्क है….एक चेतावनी…..बहुत कठिन है डगर पनघट की…..उसका जवाब…..जब-जब कृष्ण की बंसी बाजी निकली राधा सज के जान अजान कम ध्यान भुला के लोक लाज को तज के…… एक सी ताल पर जूनून रगों नें दौड़ने लगता है….सप्तक तक जाता सुर….. कहता है कि ये कायनात इश्क है और जान इश्क है….अंत में इश्क की इन्तहा….खाक को बुत और बुत को देवता करता है इश्क इन्तहा ये है कि बन्दे को खुदा करता है इश्क….फिर कबीर तू तू करती तू भई मुझमे रहीं ना मैं…..यूँ फ़िल्म में ये रोशन की कम्पोजीशन है लेकिन असल में ये उनके गुरु भाई फ़तेह अली खान की रचना है….अंत तक आते आते भावनाओं कम अतिरेक और आंसू….आख़िर दुःख और खुशी के अतिरेक के साथ भावनाओं के अतिरेक की अभिव्यक्ति भी तो ये ही करते है….आनंद के समंदर में पुरी तरह डूबे हुए….शब्द खत्म हुए….हाँ एक प्यास बनायें रखें ……घूंट घूंट पिए…..क्योंकि तृप्ति से ज्यादा आनंददायक है प्यास….जय हो के ज़माने में सुने इश्क की महिमा और बताएं……

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