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गुम हो चुकी लड़की…! (चौथी किश्त)

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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गतांक से आगे…
दीपावली मना चुकने के बाद परीक्षा की तैयारी का दौर शुरू हो चुका था….। शामें हल्की-हल्की ठंडक लेकर आने लगी थी। दोस्त के यहाँ सुबह से शाम तक पढ़ने के बाद देर शाम घर लौट रहा था कि गली के मुहाने पर मैंने उसे बदहवास हाल में पाया। दुपट्टा और टखने की तरफ से फटी हुई सलवार, कुहनी छिली हुई और कलाई से खून टपक रहा था। उसके काईनेटिक के फुट रेस्ट पर लटके पालीथिन भी रगड़ गई थी और उसमें से सामान झाँक रहा था…. मैंने घबराकर पूछा— क्या हुआ….?
उसके आँसू ही निकल आए…. पालीथिन बैग में पैर फँस गया और गिर गई…।
और ये कलाई में से खून क्यों निकल रहा है….?—खून देखकर मैं घबरा गया था। अपने जेब से रूमाल निकाल कर कलाई को बाँधा।
पता नहीं…. शायद कोई काँच का सामान टूट कर चुभ गया हैं।
मैंने अपनी गाड़ी वहीं खड़ी की और उसकी गाड़ी पर उसे बैठाया और घर छोड़ा…. जब अपनी गाड़ी लेकर घर पहुँचा तो माँ वहाँ जा चुकी थी।
चाची ने उसे पानी पिलाया और दीवान पर लेटा दिया। उसकी कटी हुई कलाई की ड्रेसिंग करते हुए बड़बड़ाई।–इस लड़की के मारे तो नाक में दम है। घर में इतने कप पड़े हैं, फिर भी चाय पीने के लिए इसे गिलास चाहिए।
गिलास….!— एकसाथ मैंने और माँ दोनों ने पूछा…।
हाँ और नहीं तो क्या… कहती है कि सर्दी में काँच के गिलास में चाय पीना अच्छा लगता है। — चाची ने कहा।
लेकिन अभी दीपावली पर ही तो हम दोनों काँच के गिलास लेकर आए थे…।– माँ ने चाची से कहा।
वो तो गर्मी में शरबत पीने के गिलास है। सर्दी में चाय पीने के लिए नहीं है। सर्दी में तो लंबे और सँकरे गिलास होने चाहिए चाय के लिए….।— अब तक वह स्वस्थ हो चुकी थी, इसलिए मासूमियत से बोली।
मुझे हँसी आ गई…तो वह चिढ़ कर बोली…. तुम्हें तो कुछ समझ में आता नहीं है। सर्दी में चाय ज्यादा गरम चाहिए और चौड़े कप में जल्दी ठंडी हो जाती है, फिर उसकी क्वांटिटी भी अच्छी चाहिए… इसलिए काँच के गिलास चाहिए चाय के लिए….तुम तो निरे बुद्धु हो….।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं उसे सोचने लगा हूँ….। कभी-कभी तो यूँ भी भ्रम होता है कि मैं उसे जीने ही लगा हूँ। सब कुछ करता हूँ, तब वह मेरे आसपास नहीं होती है, लेकिन जब वह दिखती है तो फिर मेरे वजूद पर ऐसे होती है, जैसे जिस्म पर कपड़े…. फबते और लिपटे हुए-से…।
क्रमशः

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