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गुम हो चुकी लड़की… (पहला भाग)

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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दिसंबर जा रहा था….. वो गुजरते साल का एक और छोटा-सा दिन था…… गुलमोहर के पेड़ के नीचे धूप और छाह से बुने कालीन पर वो मेरे सामने बैठी थी। उसके सिर और कंधों पर धूप के चकते उभर आए थे….. मोरपंखी कुर्ते पर हरा दुपट्टा पड़ा था……कालीन की बुनावट को मुग्ध होकर देखती उस लड़की ने एकाएक सिर उठाया और उल्लास से कहा- बसंत आने वाला है। केसरिया दिन और सतरंगी शामें…..नशीली-नशीली रातें, रून-झुन करती सुबह…. नाजुक फूल….. हरी-सुनहरी और लाल कोंपलें…..ऐसा लगता है, जैसे प्रकृति हमें लोक-गीत सुना रही है।
हल्की सी हवा से उड़कर गुलमोहर के पीले छोटे पत्ते जैसे सिर और बदन पर उतर आए थे। मैंने उसे चिढ़ाया– और फिर आ जाएगा सड़ा हुआ मौसम…..। उसकी आँखें बुझ गई…..। मैंने फिर से जलाने की कोशिश की…. जलते दिन और बेचैन रातों वाली गर्मी….. न घूम सकते हैं, न सो सकते हैं, न ठीक से खा सकते हैं और न ही अच्छा पहन सकते हैं। बस दिन-पर-दिन जैसे-तैसे काटते रहो….।
उसने प्रतिवाद किया- मुझे पसंद है। नवेली दुल्हन की तरह धीरे-धीरे, पश्चिम की ओर मंथर होकर उतरता सूरज, लंबी होती शाम…. बर्फ को गोले….मीठे गाने….. हल्के रंग….दिन की नींद, रातों में छत पर पड़े रहकर तारों से बातें करते हुए जागना….मुझे सब पसंद है।
और उस दिन….. वो बाजार में बसंती रंग का दुपट्टा ढूँढते हुए मिली थी। बसंत पंचमी पर केसरिया और मेहरून रंग के सलवार कुर्ते पर वही खरीदा हुआ दुपट्टा डाले घऱ आई थी। उसके पूरे बदन से बसंत टपक रहा था। माँ ने उसे गले लगाया कितनी सुंदर लग रही है…. मेरी तरफ देखकर मेरी सहमति चाही मैंने भी आँखों से हामी भर दी, लेकिन उसने नहीं देखा।
क्रमशः

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