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उमंग है तो अवसाद भी होगा!

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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हर तरफ सफाई का दौर चल रहा है… सोचा थोड़ा अपने अंदर के जंक का भी कुछ करे, लेकिन बड़ी मुश्किल पेश आई… सामान हो तो छाँट कर अलग कर दें, लेकिन विचारों का क्या करें? कई सारे टहलते रहते हैं, किसी एक को पकड़ कर झाड़े-पोंछे तो दूसरा आ खड़ा होता है और इतनी जल्दी मचाता है कि पहले को छोड़ना पड़ता है… दूसरे को चमकाने की कवायद शुरू करें तो पहला निकल भागता है, उसके निकल भागने का अफसोस कर रहे होते हैं तो जो हाथ में होता है, उसके निकल जाने की भी सूरत निकल आती है… बस यही क्रम लगातार चल रहा है।… कुल मिलाकर बेचैनी…। अंदर-बाहर उत्सव का माहौल है, लेकिन कहीं गहरे… उमंग और उदासी के बीच छुपाछाई का खेल चल रहा है। आजकल संगीत का नशा रहता है… और इन दिनों एक ही सीडी स्थाई तौर पर बज रही है… मेंहदी हसन की… तो ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’ गज़ल चल रही थी और उसका अंतरा – उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू… के जादू को वो विस्तार दे रहे थे और उस विस्तार से उदासी का मीठा-मखमली जादू फैलता-गहराता जा रहा था।
मन की प्रकृति भी अजीब है, कल जिस बात को मान लिया था, आज उसी से विद्रोह कर बैठता है। ओशो के उद्धरण से समझा लिया था कि जिस तरह के प्रकृति के दूसरे कार्य-व्यापार का कोई उद्देश्य नहीं है, उसी तरह जीवन का भी कोई उद्देश्य नहीं है… लेकिन उस मीठी-मखमली उदासी के समंदर से जब बाहर आए तो जीवन के निरूद्देश्य और अर्थहीन होने का नमक हमारे साथ लौटा… अब फिर से वही कश्मकश है, यदि जीवन है तो फिर उसका कोई अर्थ तो होना ही है और यदि नहीं है तो फिर जीवन क्यों है? और इसी से उपजता है एक भयंकर सवाल… मृत्यु… ?
एक बार फिर चेतना इसके आसपास केंद्रीत होने लगी है… जब एक दिन मर जाना है तो फिर कुछ भी करने का हासिल क्या है? मरने के बाद क्या बचा रहेगा… जो भी बचेगा, उसका हमारे लिए क्या मतलब होगा? औऱ जब मतलब नहीं है तो फिर कुछ भी क्यों करें… ? हाँलाकि सच ये भी है कि कर्म करना हमारी मजबूरी है।
वही पुराने सवाल, जिनका कोई जवाब नहीं है… बेमौका है… उत्सव के बीच है … खत्म होने से पहले ही अवसाद… यही धूप-छाँव है… यही अँधेरा-उजाला…. सुख-दुख… यही जीवन-मृत्यु… तो फिर उमंग-अवसाद भी सही…। आखिरकार तो नितांत विरोधी दिखती भावनाएँ… कहीं-न-कहीं एक दूसरे से गहरे जुड़ी हुई जो होती है…. नहीं…!

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