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भरीपूरी प्यास…! – पहली किश्त

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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बारिश
तन्मय जब ऑफिस से निकला था, तब लग नहीं रहा था कि इतनी तेज बारिश होगी। ठीक है कि बारिश के मौसम में यदि बारिश नहीं होगी तो कब होगी, लेकिन इतनी धुआँधार कि कुछ सूझ ही नहीं रहा हो, तभी तो उसे यहाँ अपनी गाड़ी खड़ी करनी पड़ी थी। बबूल के पेड़ के नीचे जिस वक्त उसने अपनी गाड़ी टिकाई थी, तब आसपास का नज़ारा धुँधला रहा था। गाड़ी पर तेज पड़ती बूँदों की टपर-टपर और शीशों पर जमती भाप… अपनी गाड़ी टिकाकर उसने अपने शरीर को थोड़ा रिलेक्स किया था … उसे एकाएक सलोनी याद आ गई… यही मौसम था, सलोनी जब मैंने तुम्हें पहली बार मार्क किया था… हाँ देखा तो कई बार था, लेकिन उस दिन पहली बार मैंने तुम्हें बार-बार देखा औऱ देखना चाहा था, तुम मुझे उस दिन कुछ खास लगी थी, कितनी अजीब बात है कि लगातार चार साल साथ ऱहे फिर भी मैं तुम्हें ये बात बता नहीं पाया। हरे रंग के सलवार कमीज में लगातार हो रही बारिश में कॉलेज के लॉन की सीढ़ी पर तुम्हें भीगते देखकर एक-साथ पता नहीं क्या-क्या उभरा था। मैं कॉरीडोर में खड़ा था औऱ तुम कॉरीडोर की तरफ पीठ कर सीढ़ियों पर बैठी थी, बारिश में भीग रही थी … तुम्हारी हिलती हुई पीठ ये बता रही थी कि तुम रो रही थी। उज्वला के उस संबोधन कल्लो को सुनकर तुम अवाक थी, ये तो वहीं कॉरीडोर में खड़े-खड़े ही तुम्हारे चेहरे के भावों से समझ आ गया था, लेकिन तुम इतनी हर्ट हुई थी कि तुम्हें रोना आ जाएगा, ये हम समझ नहीं पाए थे।
हे भगवान तुम आज फिर क्यों याद आ रही हो? तन्मय ने कार की कुर्सी को थोड़ा पीछे किया और रेडियो ऑन कर दिया। कव्वाली शायद शुरू ही हुई है – मेरे नामुराद जुनून का है इलाज कोई तो मौत है… ओह लूनी… फिर तुम। उस दिन भी बारिश ही हो रही थी। कैंटीन में कोने की टेबल पकड़ कर हम लोग बैठे थे। यलो सूट और मेजैंटा दुपट्टा… तुम जब भी याद आती हो अपने कपड़ों के रंग के साथ याद आती हो… समझ नहीं पाता ऐसा क्यों होता है?
तुम शायद कॉफी सिप कर रही थी और एकाएक तुमने कप टेबल पर रख दिया। पीठ को कुर्सी से टिका दिया और आँखें बंद कर ली थी। उस कोलाहल में भी तुमने रेडियो पर बज रही कव्वाली को सुन लिया था। ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क… और खत्म होती कव्वाली के खिंचाव को मैंने तुम्हारे चेहरे के भावों में पढ़ा था। तुम्हारी आँखें तब भी बंद थी, लेकिन एक-एक बूँद आँसू ढ़लक पड़ा था। जब तुमने आँखें खोली थी तो तुम्हारे चेहरे पर जो कुछ नजर आया वो मुझसे सहा नहीं गया था, मैं बाहर हो रही बारिश को देखने लगा था। जब थोड़ी देर बाद तुम सहज हुईं थीं तो मैंने तुमसे पूछा था – रोईं क्यों थीं?
तब तुम जोर से हँसी थी… रोईं नहीं थी, डूबी थीं।
तुम चुप हो गईं थी। बहुत देर बाद तुमने मुझसे कहा था, कभी इस कव्वाली को अँधेरे में अकेले तेज आवाज में सुनना… तुम खुद को बदलता हुआ महसूस करोगे। और आश्चर्य है कि तुम्हारे जाने के बाद ऐसा कोई दिन आ ही नहीं पाया कि वो कव्वाली भी हो, अँधेरा भी औऱ अकेलापन भी… आज भी… इस घनघोर बारिश में वॉल्यूम तेज करने की ही सहूलियत है, बस… वैसे घनघोर बारिश में काफी कुछ अँधेरे जैसा ही हो रहा है, लेकिन अकेलापन कहाँ से लाऊँ… यहाँ तो तुम हो…। फिर भी आज जैसा तुमने कहा था, उसके बहुत अरीब-करीब-सा ही समाँ है। … तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूँ, मेरी उम्र भर की तलाश है… बंद आँखें और तुम्हारी हँसती तस्वीर… सच में डूबने का सामान है… औऱ इंतेहा ये है कि बंदे को खुदा करता है इश्क… एक सनसनी-सी बदन में दौड़ गई थी, ठीक उस दिन की तरह, जब इसी तरह की बारिश में मैंने तुम्हें अपने गले लगाया था। बारिश में लुभाते तीखे मरून और हरे रंग के कपड़ों में तुम्हारा चेहरा आसमान की तरफ था और तुम्हें देखते ही मेरे अंदर कुछ तूफान की तेजी से उमड़ने लगा था, तभी तो
वो अहसास जिसे मैं अपनी नींद से भी दूर रखता था, जिसे मैंने कभी अपने अंदर भी नहीं आने दिया था, वो मैं तुमसे कह गया था, अनायास… मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ… सलोनी… मेरी लूनी…। बाहर भीग रहा था, लेकिन अंदर कहीं धीमी-धीमी-सी तपन थीं… तुम्हारी धड़कन मेरी धड़कनों को थपकियाँ दे रही थी… औऱ मैं पागल हो रहा था… बस… मेरा खुद पर भी इख्तियार नहीं था, जिंदगी में पहली बार मैंने महसूस किया था कि हमारे चाहने और हमारे करने के बीच कभी-कभी एक बड़ी-सी खाई बन जाती है, हम खुद अपने आप को भी संभाल नहीं पाते हैं, हम करना क्या चाहते हैं और क्या कर बैठते हैं? तभी तो कोई तर्क, विचार, डर कुछ भी नहीं होता है, हम खालिस चाह में बदल जाते हैं, दिल रूपी माँस के लोथड़े की बजाए धड़कते-जिंदा दिल में…।
मुझे पता नहीं है कि तुम इसे सुनती हो तो तुम्हारे अंदर क्या बदलता है, लेकिन मुझे भी कुछ तो अनूठा महसूस हुआ है।
क्रमशः

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