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काश ऐसा हो पाता…!

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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साढे़ सात बजते न बजते पूरा घर खाली हो जाता है… सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं और घर में रह जाती है सुगंधा अकेले…। पहाड़ जैसा दिन सामने पड़ा हुआ है और करने के लिए कुछ होता ही नहीं है। घर फिर से 3 बजे गुलजार होगा, तब तक उसे कभी टीवी, तो कभी अखबार-पत्रिकाओं, मोबाइल फोन या फिर किताबों से सिर फोड़ना होता है। तो सुबह साढ़े सात के बाद वह फिर से बिस्तर में घुस जाती है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। कितनी ही कोशिश करे वो दिमाग की चर्खी को चलने से नहीं रोक पाती। कभी अपने खालीपन का कीड़ा, कभी पिता का स्वास्थ्य तो कभी माँ की चिंता… कभी भाई की चिंता, कभी बच्चों की पढ़ाई, पति का स्वास्थ्य तो कभी यूँ ही खुद का भविष्य…(कभी-कभी वो खुद से सवाल करने लगती है कि क्या जिंदगी यही है, इसी तरह से जाया होने के लिए… या इसका कोई मतलब है, लक्ष्य है….? उसका पति भी उसके इस तरह के सवालों से तंग आ चुका है, लेकिन वो क्या करे!) तो कभी कुछ और… कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है उसकी जान को…। समझाने को तो वो किसी को भी ये समझा सकती है कि चिंता किसी भी समस्या का हल नहीं है, लेकिन खुद को समझा पाने जितनी समझ पता नहीं कैसे उसमें अभी तक नहीं आ पाई है। तो रात भर एक खलिश उसके नींद के उपर एक पलती झिल्ली सी पड़ी रही और उसकी नींद उसके नीचे कुनमुनाती रही। सुबह का अपना कर्म पूरा कर उसने खिड़कियों के खुले पर्दे खींच दिए। पंखे की स्पीड कम कर दी और चादर तानकर सोने की कोशिश करने लगी। वो झिल्ली अभी भी जहन पर पड़ी हुई है… क्या करे उसका…? बारिश का मौसम भी कुछ अजीब होता है, पंखा चले तो ठंडा लगता है और बंद कर दें तो गर्मी लगने लगती है, तो जब सुगंधा को चादर में ठंड़ा लगने लगा तो उसने अपने सिर तक कंबल खींच लिया। कमरे में वैसे ही अँधेरा था, सिर तक कंबल खींच लेने से अंदर का अँधेरा औऱ गाढ़ा हो गया, तो अँधेरे और कंबल के गुनगुनेपन का आश्वासन पाकर नींद झिल्ली तोड़कर उपर आ गई। थोड़ी देर के लिए दुनिया और दुनिया की चिंताएँ कंबल के बाहर ही रह गई और सुगंधा सो गई। हल्की झपकी के बाद जब उसने कंबल हटाने के लिए हाथ उठाया तो उसे एक अजीब सी दहशत हुई… उसे लगा जैसे वो अंदर बहुत सुरक्षित है और जैसे ही उसने कंबल हटाया बाहर खड़ी दुनिया उसे झपट लेगी… और वो वहीं साँस रोके लेटी रही…, लेकिन जल्दी ही उसका ये भ्रम भी टूट गया। कलाबाई ने घंटी बजाई, तो उसकी आवाज कंबल को छेदते हुए आ गई… सुगंधा ने उठकर दरवाजा खोला। कंबल को घड़ी करने के लिए हाथ बढ़ाते हुए उसने गहरी साँस ली… – काश ऐसा हो पाता कि कबंल के नीचे का अँधेरा, उसे दुनियादारी से मुक्त और दूर कर पाता…। उसने बहुत एहतियात से कंबल को उठाया जैसे ये उसका सुरक्षा घेरा हो और वो उसे छूकर आश्वास्त होना चाहती हो…।

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