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जीवन की संजीवनी, छोटी-सी खुशी

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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हर बार ये निर्भरता अखरती थी, लेकिन बहुत ज्यादा असुविधा नहीं होने पर इसे नजरअंदाज कर दिया जाता रहा। यूँ कह लें एडजस्टमेंट करने की बजाए निर्भरता को चुन लिया था। कहीं आना-जाना हो तो ड्रायवर के भरोसे… ड्रायवर भी कर्तव्य परायण… बीमारी, समस्या और त्योहारों की एकाध छुट्टी के अतिरिक्त छुट्टी लेता नहीं, इसलिए भी गाड़ी सीखने के बारे में सोचा तो कई बार लेकिन हर बार तमाम तरह के बहाने बनाकर इस विचार को खारिज कर दिया। कभी ये सोचकर कि कहाँ जाकर सीखेंगे, कभी दोस्तों ने सुझाव दिया कि ड्रायवर ही सीखा देगा (अब चूँकि वो तो हर दिन ही आता है, इसलिए उससे तो कभी भी सीख ही लेंगे), समय कैसे मैनेज करेंगे, जरूरत क्या है, इस शहर में गाड़ी चलाना यूँ भी जोखिम भरा है, जब तक पीछे की सीट पर बैठो तभी तक आनंद है, ड्रायविंग कोई बहुत आनंददायक चीज नहीं है… आदि-आदि… तो लब्बोलुआब यूँ कि ड्रायविंग सीखने को टालते रहे। ड्रायवर कई बार गाड़ी सीखने के लिए कह चुका है… सिखाने की बात पर भी उसने हाँ कर दी, लेकिन समय तो आपको ही निकालना पड़ेगा… पुछल्ला जोड़ा … अब यही तो गड़बड़ है…  समय की ही तो किल्लत है (क्यों नहीं… ओबामा, मनमोहनसिंह, सोनिया गाँधी, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, मुकेश-अनिल अंबानी और रतन टाटा के बाद हमारा ही तो नंबर है मसरूफ़ियत में…!)।

फिर एक दिन ड्रायवर ने डरते-डरते खुद ही पूछा – आपके ऑफिस के पीछे है एक कार ड्रायविंग स्कूल, क्या मैं उससे बात कर आऊँ?

सोचा चलो, शायद यही निमित्त हो और हाँ कर दी। शाम को पूरी तफ्सील के साथ वो हाजिर था। तो अगले ही दिन से सीखने का क्रम शुरू हुआ। पहले ही दिन स्टेयरिंग के कॉम्प्लीकेशन से मूड उखड़ गया… तीन दिन मन मार कर गए तो लगा कुछ-कुछ पकड़ा है, उसने चौथे दिन गियर, क्लच और एक्सीलरेटर सभी थमा दिए… भगवान एक साथ चार-चार चीजें कैसे संभाली जाएगी…? साथ में हिदायत ये भी कि सामने की तरफ तो ध्यान रखना ही है, पीछे से और दोनों तरफ से आती गाड़ियों का भी ध्यान रखना पड़ेगा… अरे… दो ही आँखें हैं और वो भी सामने की ओर… इतना सारा कैसे ध्यान रखेंगे? हर सुबह खुद को ठेलठाल कर ड्रायवर की सीट पर बैठाते और जैसे ही उतरते तो यूँ लगता जैसे नर्क से बाहर आ गए हैं… अभी तो ब्रेक का किस्सा बाकी था। हफ्ते भर बाद उसने ब्रेक भी थमा दिया, एक और का इजाफा… सुनसान में तो गाड़ी दौड़ा लो, लेकिन जरा भी भीड़ नजर आई कि हाथ-पैर फूलने लगते, वो जब ब्रेक लगाने को कहता, गाड़ी रूकती औऱ बंद हो जाती …. फिर वही कवायद… लेकिन पहले गियर में एक्सीलरेटर दबाओ तो गाड़ी बंद… फिर घबराहट। हर दिन सिखाने वाला ड्रायवर से पूछता, प्रेक्टिस कराई?

तो धीरे-धीरे गाड़ी चलाना शुरू किया। ड्रायवर हिदायत देता जाता और हम उस पर अमल करते जाते… यहाँ एक अच्छी बात है कि यदि सीखना हो तो पूरी तरह से जिज्ञासु विद्यार्थी हो जाते हैं, तो गाड़ी चलाते जाते और ड्रायवर से पूछते जाते…। उस दिन बिना ड्रायवर की हिदायत के चौथे गियर में गाड़ी चला रहे थे और ब्रेक लगाने की जरूरत लगी तो तुरंत ब्रेक ठोंका, गाड़ी पहले गियर में डाली और आगे बढ़ा ली… आश्चर्य गाड़ी बंद नहीं हुई… खुशी इतनी कि हमारे साथ-साथ गाड़ी भी लहराई… इतना सारा लिखने के पीछे का सबक बड़ा अहम है कि इस बेहद मामूली-सी उपलब्धि ने खुशी का अहसास कराया … और इस अहसास को हमने दर्ज भी किया (क्योंकि ये अहसास होता तो रहा ही है, लेकिन कभी उस तरह से पकड़ा नहीं) कि पाना दरअसल हमेशा कुछ बड़ा, भौतिक, सार्वजनिक या ऐसा नहीं होता है, जिससे रातों-रात जिंदगी बदल जाती है, फिर ऐसा हर दिन नहीं होता है, हर दिन पाने का एहसास छोटी-छोटी चीजों से होता है। छोटा-छोटा कुछ सीखना, छोटी-मोटी खुशियाँ बस इतना ही पाना है और यही है खुशी… शायद यही जीवन के लिए संजीवनी भी है।

बहुत दिनों पहले उठे सवाल कि ‘पाना क्या है?’  का लगे हाथों जवाब भी मिला… हर वो चीज जो आपमें कुछ ‘एड’ करती हो, पाना है। ये आपके हाथ से बनी स्वादिष्ट दाल से लेकर कोई अच्छी लिखी कहानी तक, किचन में किए गए नए प्रयोग के सफल होने से लेकर किसी नए और खूबसूरत विचार के पैदा होने तक, किसी अच्छी किताब को पढ़ने से लेकर गाड़ी चलाना सीख लेने तक, किसी दोस्त की परेशानी में उसे राहत देने वाली राय देने से लेकर दुनिया के किसी कोने में पैदा हुए किसी विचार को महज जान लेने तक… या फिर किसी खूबसूरत बंदिश को सुनने और किसी सरल से गाने को ठीकठाक सुर के साथ गा लेने जैसी बेहद मामूली और छोटी-छोटी चीजें पाने के दायरे में आती है, तो फिर जीवंतता के साथ जीने के लिए हर दिन कुछ छोटा-छोटा सीख कर जीवन को सरस करने का नुस्खा मजेदार नहीं है…?

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