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बस यादें रह जाती है…

अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
अस्तित्व विचारशील होने का अहसास
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पता नहीं कितने बचपन में बीमार रहती थी वो… ताई जी कहती हैं कि बहुत बचपन में तू बहुत बीमार रहती थी। उन दिनों तो आने-जाने के साधन भी नहीं हुआ करते थे। आधी-आधी रात को बारिश पानी में कोई एक छाता पकड़ता था और मैं (ताई जी) तुझे उठाए अस्पताल भागा करती थीं। उसे तो कुछ याद नहीं है। जब से होश संभाला है, छोटे भाई को ही बीमार होते देखती रही है। कभी पीलिया, तो कभी टॉयफॉइड…। और बस पूरा घर जैसे काँपने लगता था। माँ सारा-सारा दिन उसका सिर गोद में लेकर बैठी रहती थी, माँ हटती तो ताई… पापा ऑफिस से छुट्टी ले लिया करते औऱ ताऊजी आधी छुट्टी कर घर आ जाते। वो बस दर्शक बनी देखती रहती… कितना लाड़ करते हैं, सब बीमार बच्चे से… कोई आस उसमें भी जागती। पैंपर शब्द से तब तक वो परिचित नहीं थी। लेकिन पता नहीं कैसी मिट्टी थी, उसकी कि कभी उसका बुखार तक 100 से उपर नहीं जाता था। इस बात का मलाल था उसे… क्या पता आज भी हो…।
उस दिन भी भाई की बीमारी का ग्यारहवाँ दिन था। बुखार उतरता और फिर चढ़ने लगता…। कभी-कभी तो थर्मामीटर अविश्वसनीय छलाँग लगता और बुखार 104 डिग्री या फिर 105 के करीब पहुँच जाता… घर का हरेक सदस्य घबराने लगता, कोई इस डॉक्टर के पास ले जाने की बात करता तो कोई दूसरे…। वो बस दर्शक हुआ करती। आखिरकार डॉक्टर ने सलाह दे ही डाली कि बच्चे को अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा। उन दिनों प्रायवेट अस्पताल बहुत ज्यादा नहीं हुआ करते थे और जो होते थे, उनकी विश्वसनीयता भी नहीं थी, सो सिविल अस्पताल में भाई को भर्ती करा दिया गया। दिन-भर एक-के-बाद एक टेस्ट होते रहे और शाम तक पता चला कि पीलिया तो खैर था ही अब डबल टॉयफॉयड भी हो गया है। बुखार भी उतरते-उतरते ही उतरेगा। माँ उदास होकर भाई के लिए मौसंबी का रस निकाल रही थी। काँच का काँटे वाला कटोरा… मौंसबी को दबा-दबाकर नरम करने के बाद नींबू की तरह उसे बीच में से काटकर उस काँटे वाले उभरे हिस्से पर पूरी ताकत से दबाकर माँ रस निकाल रही थी। नीचे सारा रस इकट्ठा हो रहा था। काँच के ही गिलास पर गीला कपड़ा लगाकर सारा रस उसमें उँड़ेलती, फिर कपड़े को भी पूरी ताकत से निचोड़ देती। ना तो छिलकों में कुछ बचता और न ही कपड़े में जमा कूचे में… सारा रस गिलास में उतर आता और धीरे-धीरे गिलास में रस की मात्रा बढ़ती जाती… वो बड़ी हसरत से गिलास में धीरे-धीरे बढ़ते रस को देखती। उसका मन होता कि छिलकों को उलटाकर आधी कटी निचुड़ी हुई फाँकों को खा ले… लेकिन माँ की झिड़की के डर से बस देखती रहती। माँ का ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने आँखों से इशारा किया कि देख लें यदि इसमें कुछ बचा हो तो… फिर जाने क्या सोचकर आखिरी वाली मौसंबी में थोड़ा-सा रस छोड़ दिया और उसने कृतज्ञ होकर माँ की तरफ देखा। रस में ढेर सारा ग्लूकोज डालकर जब भाई के दिया तो वो रोने लगा। वो समझ ही नहीं पा रही थी कि इसमें रोने की क्या बात है? वो कह रहा था मुझे नहीं पीना और सब उसे पुचकार कर और थोड़ा-सा पी लेने की मनुहार करते… एक घूँट पी ले, ऐसा कहकर फुसलाते। उसे बड़ा आश्चर्य़ हुआ कि कोई कैसे फल और जूस के लिए भी इंकार करता होगा। फिर भाई को समझाने के लिए गिलास में से थोड़ा रस किसी कटोरी में डाला कर उसे दे दिया…. कि देख अब कम कर लिया है, अब तो पी ले…।
फल काटकर उसे बहुत मान-मनौव्वल कर खिलाए जाते और वो 10 साल की छोकरी सोचती कि कोई ऐसा बीमार कैसे हो सकता है कि वह फल खाने से ही इंकार कर दे। और फिर खुद से एक वादा करती, यदि वो बीमार हुई तो कभी…कभी… फल खाने से इंकार नहीं करेगी… लेकिन वो ऐसी बीमार कभी हुई ही नहीं। (बाद में जब वो बड़ी हुई तो उसने इजाद किया कि – लड़कियाँ शारीरिक रूप से मजबूत होती है, उन्हें बड़ा करने में माता-पिता को ज्यादा मुश्किलें नहीं आती हैं। भाई ने पहले तो बहुत मजाक उड़ाया फिर एक दिन किसी रिपोर्ट को पढ़कर उसने भी स्वीकार कर लिया कि हाँ लड़कियाँ ‘हमारी’ तुलना में ज्यादा मजबूत होती है।)टीवी पर किसी म्यूजिकल रिएलिटी शो को देखते हुए, वो एक-एक कर मौसंबी छील रही है। बस यहीं उसे अपना बचपन याद आ रहा है। न जाने कैसे आँसू उतर आए… जबकि अभी एक सूखी-सी मौसंबी को डस्टबिन के हवाले कर आई है। पता नहीं तब से ही फल उसकी कमजोरी है या फिर उसे पसंद थे, इसलिए उसके अंदर उस तरह से सब कुछ ठहर गया… लेकिन फलों को लेकर उसकी दीवानगी उसके ससुराल में ‘विख्यात’ है। मौसंबी साफ करके उसने प्लेट टेबल पर रख दी। सभी लोग प्रोग्राम देखते हुए खा रहे हैं। वो भी… लेकिन उसे लगा कि उस दिन अस्पताल में निचुड़ी हुई मौसंबी में जो स्वाद आया था, उसके बाद अब तक नहीं आया… क्यों…?

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